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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
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जैन दर्शन - जैन पुराणों में अहिंसा, तपस्या, योगचर्या आदि धार्मिक अनुष्ठानों को श्रमण संस्कृति का आधार माना गया है । उपनिषद् युग के बाद की शताब्दियों में संदेहवाद और अक्रियावाद का राज्य स्थापित हो गया था । इस अव्यवस्था के विरुद्ध जैनदर्शन ने क्रियावाद का जोरदार समर्थन किया। जैनदर्शन का मूलाधार ' अनेकान्त' या स्याद्वाद है । इसके अनुसार संसार में जो कुछ है, उसकी सापेक्षिक सत्ता है और उसके यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए अनेक दृष्टियों की आवश्यकता होती है । वह किसी की अपेक्षा में सत् और किसी की अपेक्षा में असत् भी हो सकता है । इस प्रकार किसी पदार्थ की अनेक स्थितियां हो सकती हैं । इसे सप्तभङ्गी नय भी कहा गया है ।
जैनधर्म कैवल्य को मनुष्य का परम पुरुषार्थ मानता है जो सत् विश्वास, सत्कार्य और सत्ज्ञानसे प्राप्त हो सकता है । जैन साधना के दो भाग - गृहधर्म और यतिधर्म - किए गये हैं । गृहधर्म के अन्तर्गत पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत बताये गये हैं । गृहस्थ के लिए भी विकारों को त्याग कर इन्द्रियों का नियंत्रण करते हुए नित्य नियम पूर्वक आचार एवं स्वाध्याय के नियमों का पालन करना आवश्यक बताया गया है । यतिधर्म की साधना काफी क्लिष्ट है जिसके विस्तार में जाना अभीष्ट नहीं है ।
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जैनियों का विश्वास है कि कर्म ही मनुष्य के बंधन का कारण है । ये आठ प्रकार के होते हैं । ये जीव की सम्यकत्व की प्राप्ति में बाधक हैं । कर्मग्रन्थि को खोलने में सत्य, अपरिग्रह, अहिंसा आदि व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन ही सहायक है, ऐसा साधक समाज की मंगल कामना करता हुआ ऐसे कर्म करता है जो बन्धन नहीं होते । वह 'निर्जरा' द्वारा संचित कर्मों को निष्फल कर देता है और आगे के कर्मों का मार्ग 'संवर' द्वारा बन्द कर देता है । इस प्रकार समस्त कर्मों का क्षय ही मोक्ष है ।
इस धर्म में तंत्रसाधना का अधिक प्रवेश नहीं हो पाया। मंत्रवाद तक ही सीमित दिखाई देता है । आचार पर कठोर नियन्त्रण होने के कारण अभिचार एवं पंचमकारों का यहाँ प्रवेश वर्जित रहा । कुछ साधक विभूतियों की प्राप्ति के लिए अजितबाला और अपराजिता की साधना करते थे । बृहत् कोश में ऐसे तांत्रिक विधानों का उल्लेख है । ऐसे विद्याधरों की चर्चा मिलती है जो आकाशगामिनीविद्या, शीघ्रगामिनीविद्या, रूपपरिवर्तनविद्या आदि में प्रवीण होते थे । उद्योतन की कुवलयमाला में बेताल को मांसा
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