SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास स्थिति सुदृढ़ बनाये रखने में सफल रहा किन्तु बौद्ध धर्म का तेजी से ह्रास हुआ । इसी समय इस्लाम के प्रवेश के कारण धर्म के क्षेत्र में नई स्थिति और समस्या उत्पन्न हो गई और सभी राजवंश इस समस्या में उलझ गये । ७० जैनधर्म का परिचय -- छठीं शताब्दी तक जैनधर्म पूर्ण विकसित होकर श्वेताम्बर और दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों में विभक्त हो चुका था । आगे इनका भी उपविभाजन, गणों, गच्छों, कुलों और शाखाओं में होने लगा । वाण ने अर्हतों, श्वेतपटों और केशलुञ्चकों का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है। ह्वानच्यांग भी ऐसे साधुओं की चर्चा करता है । उसने तक्षशिला और निपुला में श्वेताम्बर और दिगम्बर जैनियों को देखा था। सातवीं शती में वैशाली उनका प्रमुख केन्द्र हो गया था । ८वीं शती तक जैनधर्म राजस्थान के व्यापारियों, गुजरात और मालवा की सामान्य जनता में विशेष रूप से लोकप्रिय हो गया था । जैनाचार्य हरिभद्रसूरि ने इन क्षेत्रों बहुत लोगों को जैनधर्म में दीक्षित किया । इन स्थानों के राजाओं द्वारा भी इस धर्म को प्रोत्साहन एवं संरक्षण मिला । नागभट्ट, बनराज, जयसिंह, कुमारपाल आदि राजाओं के दरबार में सूरियों का बड़ा प्रभाव था । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के मंदिर का निर्माण हस्तिकुडी के राष्ट्रकूट नरेश विराधराज ने करवाया था । उसके वंशज धवल ने सं० १०५३ में उस मन्दिर का पुनरुद्धार कराया था । के दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही उन दिनों तीर्थंकरों और अन्य देवी-देवताओं की पूजा करते थे । तीर्थंकरों के साथ ही सरस्वती, अम्बिका, यक्ष-यक्षिणी और दिक्पालों की प्रतिमायें भी जैन मंदिरों में छठीं से १०वीं शताब्दी तक पाई गई हैं। इनकी मूर्तियां उत्तर भारत में वसंतगढ़, राजस्थान में आसिया, पश्चिम में गुजरात और मारवाड़ तथा पूर्व में राजगिरि और त्रिशूल तथा मध्य भारत में खजुराहो, देवगढ़ और ग्वालियर आदि स्थानों में पाई गई हैं । तत्सम्बन्धी ग्रन्थों' से पता चलता है कि मध्य भारत में दिगम्बर सम्प्रदाय प्रभावी था; नवसारी उनका प्रमुख स्थान था । पश्चिम भारत में श्वेतांबर सम्प्रदाय का संगठन मजबूत हो गया था | बिहार और उड़ीसा में कुछ लोग संभवतः दिगम्बर सम्प्रदाय के मानने वाले थे किन्तु बंगाल में इनका प्रभाव नहीं था । १. देखिये डॉ० एस० वी० देव हिस्ट्री आफ जैन मोर्नकिज्म पूना १९५६ (History of Jain Monachism) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy