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________________ ( ७ ) क्षीण होती हुई प्रवृत्ति के अवशेषों के साथ नवोदित देश्यभाषाओं के प्रयोग मिले-जुले हैं । हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी का सम्बन्ध बड़ा प्राचीन और घनिष्ठ रहा है । इन भाषाओं और इनके साहित्य में ५वीं शताब्दी तक अद्भुत साम्य दिखाई देता है ་ सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का स्थान केन्द्रीय महत्त्व का है । १२वीं से १५वीं शताब्दी की अवधि को हिन्दी साहित्येतिहासों में आदिकाल कहा गया है । इस युग के निर्माण में विद्यापति के अवहट्ट से लेकर जैनाचार्यों के मरु-गुर्जर तक का योगदान है । यद्यपि इसमें बौद्धों, सिद्धों, नाथों और चारणों का साहित्य सम्मिलित है किन्तु परिमाण और प्रामाणिकता की दृष्टि से जैन साहित्य सबसे महत्त्वपूर्ण है । इन रचनाओं की प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण की लिखी प्रामाणिक हस्तप्रतियाँ प्रचुर मात्रा में जैन ज्ञान- भाण्डारों में उपलब्ध हैं जिनसे पाठ शोधन, निर्धारण, भाषा वैज्ञानिक अध्ययन और साहित्यरूपों की परम्परा का सुविधापूर्वक विवेचन किया जा सकता है । भारतीय साहित्य की मुख्य प्रवृत्ति 'धर्म' रही है । जैन साहित्य तो पूर्णतया धर्माश्रित है, किन्तु इसी आधार पर उसे साम्प्रदायिक साहित्य की संज्ञा देकर इतिहास से उसे खारिज करना आत्मघाती कार्य सिद्ध हुआ है । धर्म की सामाजिक मान्यता का जितना प्रामाणिक वर्णन जैनाचार्यों ने किया है उतना अन्यत्र दुर्लभ है । तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण घटनाओं का बिना किसी अतिरंजना के यथातथ्य निरूपण करके इन लोगों ने देश के इतिहास एवं समाज की संस्कृति के अध्ययन का ठोस आधार प्रस्तुत किया है। दुर्भाग्यवश इस विशाल एवं प्रामाणिक साहित्य का अपेक्षित अध्ययन करने के स्थान पर इसकी उपेक्षा की गई । इस उपेक्षा का रचनात्मक प्रतिकार करने के लिए इस पुस्तक की नितान्त आवश्यकता थी । इसके बिना हिन्दी भाषा और साहित्य का विकासक्रम भंग हो रहा था, इस ग्रन्थ के लेखन से वह कड़ी जुड़ जाती है । जैन साहित्य हमारी संस्कृति की विविधता में एकता का पोषक है और कर्म सिद्धान्त द्वारा मनुष्य के पुरुषार्थ का विजय उद्घोष करके कर्म की प्रेरणा देता है । अनेकान्त द्वारा यह ऐकान्तिक दुराग्रह का निषेध तथा सहिष्णुता का संदेश देता है । इतने उत्तम और विशाल जैन साहित्य का इतिवृत्त हिन्दी में आया है, इससे हिन्दी साहित्य का भण्डार समृद्ध हुआ है और हिन्दी पाठकों को हिन्दी भाषा और उसके साहित्य का समग्र पूर्व - वृत्त जानने तथा उसकी परम्परा को समझने का अवसर मिला है, यही इसकी चरितार्थता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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