________________
लेखकीय निवेदन
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में 'जैन विद्या-शोध एवं प्रकाशन समन्वय समिति' की बैठक में निर्णय लिया गया था कि 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' योजना के अन्तर्गत 'मरु-गुर्जर जैन साहित्य का इतिहास' लिखवाया जाये और इसे तैयार करने में श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई के ग्रन्थ 'जैन गुर्जर कविओ' और स्व० श्री अगरचन्द नाहटा के लघु ग्रन्थ 'राजस्थानी जैन कवि' का उपयोग किया जाये। संस्थान के निदेशक डॉ० सागरमल जैन ने प्रस्तावित ग्रन्थ के लेखन कार्य के लिए मुझसे कहा तो कार्य मनोनुकूल होने के कारण मैं प्रसन्न भी हुआ और जैन विद्या में अपनी अल्पज्ञता के कारण सशंक भी। किन्तु डॉ० सागरमल जैन ने मुझे निरन्तर उत्साहित किया, अध्ययन सामग्री सुलभ कराई और आवश्यकतानुसार गुजराती ग्रन्थों को पढ़ने-समझने में मेरा मार्गदर्शन भी किया। फलतः तीनचार वर्षों के परिश्रम का यह परिणाम ग्रन्थरूप में पाठकों के सामने है। ग्रन्थ कैसा है यह निर्णय करना सुधी पाठकों का काम है किन्तु कार्य किस प्रकार किया गया है यह मुझे अवश्य निवेदित करना है ।
'मरु-गुर्जर' शब्द हिन्दी के सामान्य पाठकों के लिए अपेक्षाकृत अल्प परिचित है। जैन साहित्य के लेखक प्रायः जैन मुनि हुए हैं जो प्रायः राजस्थान गुजरात और मध्यप्रदेश में परिभ्रमण करते रहते थे, अतः इनकी भाषा प्रादेशिकता की संकीर्ण सीमा के बाहर अन्तर्घान्तीय स्वभाव की रही है, जिसमें हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती के पुराने प्रयोग मिले-जुले हैं । वस्तुतः १२वीं शती से १५वीं शती तक इन भाषाओं में कोई बड़ा भाषा-वैज्ञानिक भेद नहीं रहा है। इसी भाषा को गुलेरी जी ने पुरानी हिन्दी कहा है और इसे ही जैन विद्वान् मरु-गुर्जर कहते हैं। सच कहिये तो दोनों समानार्थक हैं। जैन लेखक जनसामान्य की प्रचलित बोलचाल की भाषा का ही सदैव प्रयोग करते रहे हैं इसलिए मरु-गुर्जर राजस्थान एवं गुजरात में प्रचलित जन-भाषा का ही एक नाम है।
१०वीं से १२वीं शताब्दी के बीच स्थानीय अपभ्रंशों से आधुनिक आर्य भाषाओं का उद्भव प्रारम्भ हुआ किन्तु इनका वास्तविक अलगाव १५वीं शताब्दी के बाद ही हुआ। इस सन्धिकाल की भाषा में संक्रमणकालीन भाषा की सभी विशेषतायें पाई जाती हैं जिसमें अपभ्रश की क्रमशः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org