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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है । इसकी भाषा प्रायः बोलचाल की अपभ्रंश है। आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी कवि अहहमाण की काव्य कुशलता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कवि प्राकृतिक दृश्यों का चित्र इस कुशलता से अंकित करता है कि इससे विरहिणी के विरहाकुल हृदय की मर्मवेदना मुखरित हो उठती है। वर्णन चाहे जिस दृश्य का हो व्यञ्जना हृदय की कोमलता और मर्मवेदना की ही होती है।
मेघदूत की शैली में लिखित २२३ पद्यों के इस संदेश काव्य में पथिक् विरहिणी को अनेक प्रकार से आश्वासन देता है । प्रसंगानुसार इसमें विरह वर्णन के अलावा वसंत ऋतु और नारीशोभा तथा मानवीय संवेदनशीलता का भी भावुक चित्रण हुआ है । जब वह विरहिणी को समझा रहा होता है उसी समय उसका पति आता दीख गया और काव्य का चमत्कारिक ढंग से उपसंहार हो गया। यह १४वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण की रचना है। इसकी टीका सं० १४६५ की प्राप्त है अतः रचना और पहले की होगी।
'प्राकृत पैंगलम्' नामक एक अन्य अपभ्रंश का संकलन ग्रन्थ है जिसमें कथा सूत्र के साथ-साथ मुक्तक छन्द भी संग्रहीत हैं। इसकी भाषा सरल अपभ्रंश है । इसका संकलन १४वीं शती में ही हुआ होगा। इसमें अपभ्रंश का विकसित किन्तु सरल रूप दिखाई पड़ता है।
लौकिक प्रेम कवियों में एक अन्य महत्त्वपूर्ण कवि विद्यापति हैं। इनकी प्रसिद्ध रचना 'कीर्तिलता' द्वारा पाठकों को पूर्वी अवहट्ट का परिचय प्राप्त होता है । यह एक ऐतिहासिक चरित काव्य है जिसमें राजा कीर्तिसिंह का विवरण दिया गया है। यह भी १५वीं शती की रचना है। इसी प्रकार राजस्थानी रासो ग्रन्थ-पृथ्वीराजसो, वीसलदेवरासो, परमालरासो आदि भी इसी समय की रचनायें हैं किन्तु इस प्रबन्ध का उद्देश्य जैन साहित्य पर ही विशेष प्रकाश डालना है अतः उनका नामोल्लेख करके ही सन्तोष किया जा रहा है। __ बौद्ध अपभ्रंश साहित्य-धार्मिक या साम्प्रदायिक अपभ्रंश साहित्य मुख्य रूप से जैनों द्वारा ही लिखा गया है किन्तु काफी रचनायें बौद्धों और शैवों द्वारा भी इसी कोटि की रची गई हैं जिनकी संक्षिप्त चर्चा अप्रासंगिक
१. आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी-हिन्दी साहित्य का आदिकाल
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