SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरु-गुर्जर की निरुक्ति न होगी । बौद्ध अपभ्रंश साहित्य में सर्वप्रथम सिद्धों की रचनायें मिलती हैं। म० म० हरप्रसाद शास्त्री ने सन् १९१६ में वंगीय साहित्य परिषद्, कलकत्ता से इनका एक संकलन 'बौद्धगान ओ दोहा' शीर्षक से प्रकाशित कराया। प्रो० प्रबोधचन्द्र बागची ने इसकी तिब्बती प्रति के आधार पर इसके मूलपाठ का संशोधन और सम्पादन किया। इस क्षेत्र में राहुल जी के प्रयत्नों से हिन्दी जगत् भलीभांति परिचित है। कण्ण, भुसुक, सरह, कुक्कुरी, लुइपा, शबर, शान्तिपाद आदि सिद्धों की वाणियों का संकलन, अध्ययन काफी हो चुका है। चर्यागीतों में अपने विचारों को सिद्धों ने रूपकों के सहारे व्यक्त किया है । नौका, चूहा, हाथी, हरिण आदि के रूपक द्वारा विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। चर्चागीत गेय पदों के रूप में हैं, जिनमें विभिन्न रागों का निर्देश मिलता है। दोहाकोष में प्रधान छंद दोहा है । चौपइ, अडिल्ल, पज्झटिका, गाथा, रोला, उल्लाला. आदि छंदों का प्रयोग भी किया गया है। इनकी भाषा दो रूपों में मिलती है, एक पूर्वी अपभ्रंश जिसमें पश्चिमी अपभ्रंश के शब्द रूप भी मिलते. हैं, दूसरा पश्चिमी अपभ्रंश । चर्यागीतों में पूर्वी और दोहाकोष में पश्चिमी अपभ्रंश का अधिक प्रयोग मिलता है। इनकी रचनाओं में अक्खड़पन, वैराग्य, गुरु महिमा आदि का विशेष वर्णन है। इसका हिन्दी के निर्गुण साहित्य पर प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। शैवों की अपभ्रंश रचनायें-कश्मीर का अद्वैत और त्रिक शैव सम्प्रदाय अपने विचारों को अपभ्रंश में ही व्यक्त करता है। काश्मीरी अपभ्रंश में शितिकण्ठाचार्य ने प्रसिद्ध कृति 'महानय प्रकाश' लिखी है, इसमें त्रिक सम्प्रदाय का विवेचन है। इन्होंने इसकी संस्कृत टीका भी लिखी । इसका भी रचनाकाल १५वीं शताब्दी ही है जव अपभ्रंश वहां कश्मीरी के रूप में विकसित हो रही थी। यह कश्मीरी भाषा के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें सिद्धान्त विवेचन की प्रधानता है, साहित्यिकता नहीं मिलती । इनका महत्त्व तत्कालीन साधना एवं भाषा का रूप समझने की दृष्टि से ही है। ___ अपभ्रंश भाषा और साहित्य का संक्षिप्त परिचय मरुगुर्जर भाषा और साहित्य को समझने में सहायक होगा अतः अब तक उसकी चर्चा की गई है । अब हम मरुगुर्जर भाषा और उसके साहित्य के सम्बन्ध में अपभ्रंश की पृष्ठभूमि पर सुविधापूर्वक विचार कर सकेंगे। पूर्ववर्ती भाषा एवं साहित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy