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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सुप्रभाचार्य-वैराग्यसार के लेखक सुप्रभाचार्य दिगम्बर साधु थे । इनकी कृति केवल ७७ पद्यों की छोटी रचना है जिसके रचना-स्थान एवं समय के सम्बन्ध में कुछ निश्चित ज्ञात नहीं है। वैराग्य भाव का उपदेश देता हुआ कवि कहता है :
'इक्कहिं घरे बधामणा अणंहि घरि धाजहि रोविज्जइ ।
परमत्थइ सुप्पउ भणंइ, किम वइराय भाउण किज्जइ ।' इसी प्रकार सांसारिक विषयों की असारता, यौवन, धन, सौन्दर्य की नश्वरता का दोहों में वर्णन किया गया है। इनकी भाषा में आधुनिक देशी भाषाओं से मिलते-जुलते बहुतेरे शब्द प्रयोग मिल जाते हैं जैसे --मसाण (श्मशान) लक्कड़ (लकड़ी) अथवा उक्ति–मुण्ड कि आवै कोई ( क्या कोई मर कर आता है) कर्ता और कर्म का बहवचन बनाने के लिए शब्दों के अन्त में, ह, हं विभक्ति लगाते हैं जैसे माणसह, भमंतह आदि ।
देवसेन--उपदेश परक मुक्तक रचनाओं में आपकी कृति सावयधम्मदोहा (श्रावकधर्मदोहा) अधिक लोक प्रचलित है। कुछ लोग योगीन्दु और कुछ लोग लक्ष्मीचन्द्र को इसका लेखक समझते हैं किन्तु एक प्रति में इस ग्रन्थ को देवसेन उपदिट्ठ कहा गया है। इस कृति का उनकी अन्य कृतियों जैसे भावसंग्रह आदि से पर्याप्त मेल बैठता है। इनकी अन्य रचनायें दर्शनसार, आराधनासार, तत्त्वसार, आलाप पद्धति आदि बताई जाती हैं। इस कृति के प्रारम्भ में पंचगुरुओं की वंदना, मंगलाचरण, धर्म की महत्ता बताई गई है । एक स्थान पर कवि दुर्लभ मनुज शरीर को प्राप्त कर भोगों में लिप्त रहने वालों के लिए चेतावनी देता हुआ कहता है कि उस मुर्ख ने ईंधन के लिए मानो कल्पवक्ष को समल उखाड़ दिया है। यह रचना प्रो० हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित होकर अम्बादास दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत सं० १९८९ में प्रकाशित हो चुकी है। इन्होंने दोहों की भाषा को देशीभाषा कहा है यथा :'जिणसासण भासियउ सो मइ कहियउ सारु ।
जो पाले सइभाउ करि सो तरि पावइ पारु।' इसमें प्रयुक्त शब्द रूप, विभक्ति धातुरूप सब देशभाषा के हैं। यह अपभ्रंश के काफी विकसित रूप की परिचायक है। इसमें घरतणउ जैसे (घर का) परसर्गों का प्रयोग; कच्चासण (कच्चा भोजन) थोडउ, बहुत्तु कप्पडि, लोणि जैसे शब्द प्रयोग उसे मरुगुर्जर के काफी समीप पहुँचा देते हैं । विषयों के त्याग का उपदेश देता कवि एक स्थान पर लिखता है
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