________________
मरु-गुर्जर की निरुक्ति
५५ मुनिरामसिंह-आपको पाहुड़ दोहा का रचयिता माना गया है। किन्तु कुछ लोग योगीन्दु को ही इसका भी लेखक मानते हैं। यह परमात्मप्रकाश की भाँति ही लोकप्रिय रचना है। डॉ० उपाध्ये का विचार है कि यह रचना योगीन्दु की ही है। रामसिंह मात्र एक परम्परागत नाम है। इनके काल निर्धारण में भी इसीलिए विद्वान् एकमत नहीं हैं। इस रचना के दोहों को आ० हेमचन्द्र ने उद्ध त किया है अतः ये उनसे पूर्व अवश्य लिखे गये होंगे। अतः इसकी रचना १२ वीं शती के पश्चात् नहीं मानी जा सकती है। पाहुड़ दोहे के कुछ दोहे देवसेन कृत सावयघम्म में भी मिलते हैं इसलिए इनका समय १० वीं से १२ वीं के बीच अनिश्चित है। यह प्रो० हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित होकर कारंजा जैन पब्लिकेशन सोसाइटी द्वारा वि० सं० १९९० में प्रकाशित हो चुकी है। पाहुड़ शब्द का अर्थ विशेष विषय के प्रतिपादक ग्रन्थ के रूप में रूढ़ हो गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के प्रायः सभी ग्रन्थ पाहुड़ कहे जाते हैं। वैसे यह शब्द संस्कृत 'प्राभृत' का अपभ्रंश माना जाता है जिसका अर्थ है 'उपहार'। इस अर्थ में पाहुर शब्द आज भी पूर्वी उत्तर-प्रदेश के देहातों में प्रचलित है। आ० कुन्दकुन्द के भावपाहुड़ का प्रभाव पाहुड़ दोहा पर माना जाता है। दोनों रचनाओं में रहस्यवादी प्रवृत्ति की झलक मिलती है। इन दोहों पर गोरखपंथी प्रभाव भी लक्षित होता है जो तत्कालीन एक सबल परम्परा थी। इसमें कुल २२२ पद्य हैं। इसकी भाषा शौरसेनी अपभ्रंश और मरुगुर्जर के बीच की कड़ी है। इसलिए महत्त्वपूर्ण है। इसकी भाषा का एक उदाहरण प्रस्तुत है :
"हत्थ अट्ठहं देवली कलहं णाहि पवेसु ।
संतु णिरजंणु तहिं बसइ णिम्मलु होइ गवेसु ॥" स्वयं को स्त्री और आत्मा को प्रिय मानकर एकाकार हो जाने की भावना भी है; यथा
"हउं सगुणी पिउणिगुणउ णिल्लक्खणु णी संगु ।
एकहि अंगि वसंतयहं मिलिहु ण अंगिहि अंगु ॥" इसमें निराकार-निरजंन असीम प्रिय से सीमा के मिलन की आतुरउत्कंठा संत साहित्य के रहस्यवाद से काफी मेल खाती है। ये रचनायें भारतीय संस्कृति की विशेषता-अनेकता में एकता की सूचक हैं। इनकी भाव धारा और भाषा समस्त उत्तर भारत में व्याप्त संतकाव्य धारा के मेल में है और इसकी भाषा समूचे उत्तर भारत की काव्यभाषा शौरसेनी अपभ्रंश या उसका विकसित परवर्ती रूप है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org