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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के शब्दों का रूप ले लेते हैं जैसे जोतिय ( जोतकर ) धूलु ( धूल ), टले, झडप्प आदि । आप सूरदास से ७०-७५ वर्ष पूर्व हो गये। सूरपूर्व व्रजभाषा का महत्त्वपूर्ण प्रयोग आपकी रचनाओं में उपलब्ध है। सुकौशलचरित के आरम्भ में कवि ने आत्मदैन्य व्यक्त करते हुए जो पंक्तियाँ लिखी हैं उनकी छाप सूर के 'चरणकमल वन्दौ हरिराई' वाले पद पर दिखाई देती है। पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर के प्रारम्भिक युग के अपभ्रंश धारा के इस महाकवि की विपुल काव्य सम्पदा से नवविकसित मरुगुर्जर साहित्य को भाषा एवं काव्य सम्बन्धी प्रचुर सहायता प्राप्त हुई है।
अपभ्रंश की प्रबन्ध काव्य धारा का इन्हीं महाकवि के साथ समापन करता हुआ मैं आग्रह करता हूँ कि इनके अध्ययन की तरफ अधिकाधिक अनुसंधित्सुओं को ध्यान देना चाहिये।
जैन रास साहित्य-अपभ्रंश में रास साहित्य की तीन धारायें मिलती हैं-(१) जैन मुनियों की धार्मिक रास धारा, (२) चरित काव्य सम्बन्धी रास और (३) लौकिक प्रेम सम्बन्धी रास । विवेच्य काल अर्थात् १२ वीं १३ वीं शताब्दी तक अपभ्रंश में लिखित रासों की संख्या कम ही उपलब्ध है । इस काल के प्रसिद्ध आचार्य जिनदत्त सूरि कृत 'उपदेशरसायनरास' (सं० ११७१) एक लघु रास कृति है। प्रारम्भ में रास लघु आकार के होते ही थे। यह पद्धडिया और चउपइ छन्दों में लिखित श्रावकों के लिए सदाचरण का निर्देश करने वाली रचना है। इसमें कवि ने अपने गुरु जिनवल्लभसूरि की वंदना के अलावा माघ, कालिदास और भारवि आदि संस्कृत के प्रसिद्ध कवियों का भी सम्मानपूर्वक स्मरण किया है। इस रास में तत्कालीन नाटय पद्धति पर प्रकाश डाला गया है, यथा :--
"धम्लिय नाड्य पर नच्चिज्जहि, भरह सगर निक्खमण कहिज्जहिं । चक्कवट्टि बलरायह चरियइं, नच्चिति अंति हंति पव्वइमइं।"
अर्थात् धार्मिक नाटक ( नृत्य पर आधारित ) खेले जाते हैं और उन नाटकों में सगर, भरत आदि के निष्क्रमण तथा चक्रवर्ती बलदेव आदि के चरित्र कहे जाते हैं। इसमें आ० जिनदत्त ने अपने गुरु युग प्रधान जिनवल्लभ, जैन संघ, साधु-साध्वी के सम्मान-सत्कार तथा कृपणों की सम्यक्त्वहीनता का वर्णन किया है। अन्तिम कुछ पद्यों में गहस्थों-श्रावकों के समुचित जीवननिर्वाह पद्धति पर भी प्रकाश डाला गया है। यह जैन रासों में प्राप्त प्रथम रास ग्रन्थ समझा जाता है। आपकी अन्य दो रचनाओं, १. हिन्दी सा० का बृ० इ० भाग ३, पृ० २९७ ।
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