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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्राचीन कथा को कवि ने इस कृति में जैन मतानुसार प्रस्तुत किया है । महाभारत की कथा से ही सम्बन्धित हरिवंशपुराण २६६ कड़वकों की रचना है। इसमें वसुदेव के जन्म, कंस जन्म, कृष्ण जन्म और गोकुलवास तथा उनका बाल्यकाल, गोपीक्रीड़ा, विवाह, प्रद्युम्न जन्म, महाभारत युद्ध से लेकर कृष्ण के स्वर्गारोहण तक की कथा दी गई है।
इस रचना में कहीं-कहीं सरस काव्यमय प्रसंग भी हैं किन्तु धर्मोपदेश का कोई भी उपयुक्त अवसर कवि ने हाथ से नहीं जाने दिया है। पद्धड़िया पद्धति में लिखी यह रचना कवि ने अपने आश्रयदाता दिवढ़ा साहु के आग्रह पर भाद्र शुक्ल सं० १५०० में लिखा था। इसमें कुल १३ संधियाँ हैं। ___ चन्दप्पहचरिउ की रचना कवि ने कुमारसिंह के पुत्र सिद्धपाल के आग्रह पर किया। इसमें इन्होंने अपनी गुरु परम्परा दी है, उससे ये गोपाचलगिरि पर रह कर हरिवंशपुराण की रचना करनेवाले (रयधू के गुरु) यशःकीति ही प्रतीत होते हैं। इनकी भाषा में अपभ्रंश का रूढ़ और कृत्रिम रूप अधिक दिखाई पड़ता है। भाषा सायास गढ़ी गई लगती है । एक उदाहरण अपने कथन के सन्दर्भ में प्रस्तुत कर रहा हूँ :--- "कल्लाण तं कासि कहो तणिय वरधूप,
किं एछ ए कासिं वहुविणय संभूय । णिव पुच्छिया साविकर कमल सणाए,
सहिभणिय ता ताए पच्छण्ण वायाए॥"] रयधू--( १५ वीं शती) अपभ्रंश में इतना विपुल साहित्यसृजन करने वाले कवि विरले हैं। इनकी रचनायें सिंहसेन, खेमसिंह और खेमराज के नाम से भी मिली हैं। आप अपभ्रंश के अन्तिम के सर्वाधिक सशक्त महाकवि हैं। आप उस संधिस्थल के कवि हैं जब अपभ्रंश पुरानी हिन्दी का रूप ले चली थी इसलिए आप अपभ्रंश के कवि तो हैं ही, साथ ही मरुगुर्जर के भी कवि हैं। भाषा विकास का अध्ययन करने के लिए आपकी रचनायें बडी महत्त्वपूर्ण हैं। आपकी प्रसिद्ध रचना 'पद्मपुराण' ११ संधियों और २६५ कड़वकों में लिखी जैन मतानुकल राम कथा ही है। इस कृति मे गव्वग्गिरी ( गोपाचलगिरि ) और राजा डूगरेन्द्र का उल्लेख होने से इसका रचना स्थान और समय निर्धारित करने में बड़ी सुविधा है। इनके समकालीन गोपाचल नरेश डूगरसिंह तथा इनके सुपुत्र राजाकीर्तिसिंह आपके भक्त थे। उस समय ग्वालियर का दुर्ग जैन संस्कृति का केन्द्र था। आप १. डॉ० हरिवंश कोछड़ 'अपभ्रंश साहित्य' पृ० १२६ से उद्धृत ।
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