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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
४९. "जीए रयणिहिं तणु किरण मालच्चिय दीव सिव सोहमेतु मंगल पईवय ।। सवणाण :विहुसणइ नमण कमल विइमेत्त मेवय।" इत्यादि । । अर्थात् वह नारी अपने किरण मालाचित शरीर से रात्रि में मंगलमय प्रदीप शिखा के समान प्रतीत होती है।
वैसे तो अन्य जैनकाव्यों की तरह इसका भी पर्यवसान शान्तरस में होता है किन्तु यह एक सरस प्रेमाख्यानक काव्य है। इसकी भाषा गुर्जर अपभ्रंश एवं मरु-गुर्जर के बीच की कड़ी है, इसमें रड़ा छन्द का अधिकतर प्रयोग किया गया है। अतः भाषा विकास एवं काव्यत्व की दृष्टि से यह अपभ्रंश की एक महत्त्वपूर्ण रचना है।। __ पण्डित लाखू या लक्खण-आपने 'जिणदत्तचरित' नामक ग्रन्थ वि० सं० १२७५ में लिखा। लखमदेव या लक्ष्मणदेव कृत गमिणाहचरिउ जैसी रचनायें १३ वीं शती या उसके भी बाद की हैं जिनका वर्णन मरुगुर्जर के आदि कालीन साहित्य के अन्तर्गत उपयुक्त होगा। यद्यपि कुछ विद्वान् इन्हें अपभ्रंश की रचनायें मानते हैं किन्तु इनमें मरुगुर्जर और अपभ्रंश का सम्मिलित प्रयोग हुआ है । अतः इनका विवेचन मरु-गुर्जर की प्रारम्भिक रचनाओं के अन्तर्गत ही किया जाना उचित है। इसी प्रकार नरसेन कृत श्रीपालचरित, जयमित्रहल्ल कृत वर्द्धमानचरित, माणिक्यराज कृत नागकुमारचरित आदि भी उतनी ही अपभ्रंश की कृतियाँ हैं जितनी प्रारम्भिक मरुगुर्जर की हैं। वैसे अपभ्रंश में रचनायें १५ शताब्दी तक लगातार होती रहीं और कुछ अच्छे कवि इस काल में भी हो गए पर अपभ्रंश का रचना काल १२ शताब्दी और १३ वीं शताब्दी के बीच ही कहीं समाप्त हो जाता है और मरु-गुर्जर के विकास की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से तीव्र हो जाती है। अतः आगे से मरु-गुर्जर भाषा साहित्य का आदि काल ( १३ वीं से १५ वीं) प्रारम्भ हो जाता है। इस काल के दो अपभ्रंश कवियों का उल्लेख संक्षेप में अवश्य करना उचित है एक-यशःकीर्ति और दूसरे महाकवि रयधु । ये दोनों ही १५ वीं शताब्दी के कवि हैं किन्तु इनकी रचनाओं में अपभ्रंश का सशक्त रूप प्रयुक्त हुआ है।।
यशःकोति-आपकी तीन रचनायें- पाण्डवपुराण, हरिवंशपुराण और चन्दप्पहचरिउ (चन्द्रप्रभचरित) प्राप्त हैं। इनमें से प्रथम दो प्रबन्धकाव्य और अन्तिम खण्डकाव्य है। तीनों रचनायें अप्रकाशित हैं। पाण्डव पुराण की रचना कवि ने नवगाँव के अग्रवाल वील्हा साहु के पुत्र हेमराज के आग्रह पर किया था। यह रचना कार्तिक शुक्ल अष्टमी वि० सं० १४९७ को समाप्त हुई। इसमें ३४ सन्धियाँ हैं। महाभारत में वर्णित पाण्डवों की
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