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________________ ६१० मरु-गुर्जर जैन गद्य साहित्य इस भाषा में राजस्थानी और गुजराती तथा हिन्दी का प्राचीन रूप, तत्सम शब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति और प्रसादगुण सम्पन्न गद्यभाषा-शैली का आग्रह स्पष्ट दिखाई पड़ता है। अब तक की भाषा-शैली का यही प्रति. निधि रूप है। मरु-गुर्जर का गद्यसाहित्य बड़ा प्राचीन एवं समृद्ध है। इस सम्बन्ध में डॉ० अचल शर्मा का शोधप्रबन्ध 'राजस्थानी गद्य का उद्भव और विकास' (प्रकाशित) पठनीय है। जैन विद्वानों द्वारा बालावबोध एवं टव्वा संज्ञक गद्यरचनाओं की परम्परा १४वीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर १५वीं शताब्दी में विकसित होती हई १६वीं शताब्दी में पूर्णता को प्राप्त हुई। इस काल में गद्यबद्ध बालावबोध न केवल मूल प्राकृत या संस्कृत ग्रन्थों पर लिखे गये अपितु पद्य रचनाओं की भी गद्यात्मक टीकायें की जाने लगी क्योंकि अति. संक्षिप्त और काव्य सीमा के कारण सामान्य पाठकों के लिए ये रचनायें दुर्बोध थीं जैसे रूपकमाला की चर्चा पहले की जा चकी है। उपदेशमाला आदि कई ग्रन्थों में केवल अर्थ ही नहीं समझाया गया है बल्कि दृष्टान्तस्वरूप अनेक प्रासंगिक कथायें भी अर्थ के विवेचनार्थ दी गई हैं। गद्य में वर्णन कौशल एवं पद्यानुसारी अनुप्रासात्मकता का भी विकास हो गया था जैसे 'मुत्कलानुप्रास' नामक वर्णनसंग्रह के विवरण तुकान्त गद्य में हैं। हेमन्त का वर्णन इस प्रसंग में अवलोकनीय है :__ 'अति वसंत, अवियोरितहेमन्त । जिहां सीयमाझर, तुलाइए पूढीइ, भली तुलाई उढीइ । अति ही मोटी, प्रलंब दोठी, ओटि बेसई, सीयालहुइ हसइं।' इसकी भाषा मरु-गुर्जर या पुरानी हिन्दी है । ___ जैन साहित्यकार प्रायः मुनि ही रहे हैं, अतः उनके द्वारा रचित साहित्य धार्मिक भावना से ओत-प्रोत है। इन रचनाओं में आचार्यों की प्रशस्ति, नियम, व्रत-तीर्थ आदि का वर्णन, तीर्थंकरों की स्तुति आदि का बाहुल्य है । इन लेखकों ने अंधश्रद्धा और अतिरंजन-प्रशस्ति के मोह-जाल में फंस कर न तो राजस्थानी चारणों की तरह इतिहास की अनदेखी की है और न ही विशुद्ध कलाबाजी का प्रदर्शन इनका लक्ष्य रहा है बल्कि इन्होंने अभिव्यक्ति की सरलता, सुबोधता, सहजता और विषय की प्रामाणिकता का सदैव ध्यान रखा है। खरतरगच्छीय आचार्य शान्तिसागरसूरि की प्रशस्ति से सम्बन्धित कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं_ 'अम्हारा गुरु खारतरगच्छ नायक, आनन्ददायक, श्री क्षान्तिसागरसूरि वणिता साभंलि । किसा अक ते गुरु जोधपुर इसइ नामि करी महास्थान अभिनव देवलोक समान ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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