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मरु - गुर्जर जैन गद्य साहित्य
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उल्लिखित है । आप अच्छे कवि थे । आपके कविकर्म का परिचय पद्यखंड में दिया जा चुका है।
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मेरुसुन्दर - आप खरतरगच्छ के वाचनाचार्य श्रीरत्नमूर्ति के शिष्य थे । आप १६वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के प्रसिद्ध साहित्यकार थे । आप गद्य और पद्य लेखन में समानरूप से सिद्धहस्त थे । आपकी पद्य रचनाओं का परिचय पद्यखंड में दिया जा चुका है। आपकी अनेकानेक गद्य रचनायें उपलब्ध हैं; उनमें शत्रु जयस्तव बालावबोध (सं० १५१८), शीलोपदेश माला बालावबोध (सं० १५२५ मांडवगढ़), षडावश्यकसूत्र श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र बाला० ( सं० १५२५ ) पुष्पमाला बाला० ( सं० १५२८ ), पंच निर्ग्रन्थी बाला० आदि विशेष उल्लेखनीय हैं । आपने भक्तामर पर गद्य में कथा लिखी है । सं० १५३४ से पूर्व आपने कर्पूरप्रकरण बालावबोध' षष्टिशतक विवरण, वृत्तरत्नाकर बालावबोध, भावारिवारण बालावबोध आदि लिखा । आपने संस्कृत के अलंकार ग्रन्थ 'विदग्धमुखमण्डन' और वाग्भट्टालंकार पर भी भाषा टीका रूप में बालावबोध बनाया । षडावश्यकसूत्र प्रतिक्रमण बाला० की रचना तरुणप्रभाचार्य कृत बालावबोध के 'अनुसार की गई है । यह रचना खरतरगच्छ के आचार्य जिनचन्द्रसूरि के आदेश पर की गई थी । इसकी अनेक हस्तप्रतियाँ प्राप्त हैं | आनन्दविमलसूरि के शिष्य श्री वीरविमलगणि और अन्य शिष्यों ने इनकी कई रचनाओं जैसे पंचनिर्ग्रन्थी बाला०, योगशास्त्र बाला०, आदि की हस्तप्रतियाँ लिखी हैं ।
उन दिनों बालावबोध के प्रारम्भ से संस्कृत में निबद्ध पद्य लिखने की परिपाटी चल पड़ी थी और प्रायः सभी बालावबोधों के प्रारम्भ में संस्कृतपद्य मिलते हैं । उदाहरणार्थ शीलोपदेशमाला बालावबोध के प्रारम्भ में निम्नलिखित पद्य दिया गया है :―
'श्री वामेय ममेय श्री सहितं महितं सुरैः, प्रणिपत्य सत्यभक्त्याऽनन्तातिशय शालिनः । श्री जिनचन्द्र गुरुणामादेशान मेरुसुन्दर विनेयः, शीलोपदेशमाला विवृणोति शिशु प्रबोधाय ।' इसके अन्त में मेरुसुन्दरजी लिखते हैं :
'तत्वव्रत चंद्र मिते वर्षे हर्षेण मेरुणा रचितः, तावन्नन्दतु सोऽयं यावज्जिनवीर तीर्थमिदं । ' 2
१. देसाई - जै० गु० क०, भाग ३, खंड २, पृ० १५७९ २. देसाई, पूर्वोक्त, भाग ३, खंड पृ० १५८२
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