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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
साथै १२२ बोलनी चर्चा आदि आपकी विशेष उल्लेखनीय रचनायें हैं । गद्य और पद्य में आपकी शताधिक रचनायें प्राप्त हैं ।
चउशरण प्रकीर्णक बाला० की रचना सं० १५९७ फाल्गुन में हुई। यह १६वीं शताब्दी के परिपक्व गद्यशैली की प्रतिनिधि रचना है, अतः इससे उदाहरणार्थं कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं, आदि
वर्द्धमान जिननत्वा वद्धमान गुणालयं स्मृत्वा श्रीसद्गुरोर्नाम वांछितार्थ प्रदायकं । प्रकीर्णके प्रधानार्थे लिख्यते वार्तिक मया । ओ श्री चउशरणाध्ययन 'परमपद प्राप्तिनउ बीजारूप छइ । ' "
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आपकी अधिकांश रचनायें सैद्धान्तिक विषयों से सम्बन्धित हैं । अंगसूत्रों पर संभवतः सर्वप्रथम भाषा टीकायें आपने ही कीं । आपकी भाषाटीकायें तत्कालीन गद्यभाषा का स्वरूप समझने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं | आपकी मुख्य गादी बीकानेर में है, अतः आपकी भाषा पर राजस्थानी प्रभाव भी पर्याप्त है किन्तु आप नागौर, जोधपुर के अलावा अन्य सुदूर स्थानों तक विहार करते रहते थे, अतः आपकी भाषा मरुगुर्जर के प्रचलित स्वरूप से पर्याप्त समानता रखती है । पार्श्वचन्द्रसूरि की रचनाओं में भी एक 'नवतत्त्व बालावबोध' का उल्लेख मिलता है किन्तु उद्धरण नहीं प्राप्त हुआ। श्री दिवेटियाजी ने 'नवतत्त्व बालावबोध' का एक संक्षिप्त उद्धरण अपने ग्रन्थ में दिया है और उसका रचनाकाल सं० १५८१ बताया है । हो सकता है कि यह 'नवतत्त्व बालावबोध' पार्श्वचन्द्रसूरि की रचना हो ।
एक नवतत्त्व बाल। ० सोमसुन्दरसूरि कृत (सं० १५०२) बताया गया है । उसके लेखक का भी स्पष्ट निर्धारण नहीं हो सका है। जब तक इन सभी नवतत्त्वबाला वबोधों के मूल पाठ का मिलान न किया जाय तब तक इनके लेखकों का निश्चय करना कठिन है ।
सत्तरीकर्मग्रन्थबाला० के लेखक को सोमसुन्दर का और कहीं-कहीं पाचन्द्र का शिष्य कहा गया है ।
माणिक सुन्दरसूरि - आप वृद्ध तपागच्छीय भ० रत्नसिंहरि के शिष्य थे । आपने सं० १५०१ कार्तिक शु० १३ बुधवार को देवकुल पाटण में 'भवभावना सूत्र बालावबोध' लिखा । यह सूत्र मूलतः मलधारी हेमचंदसूरि का रचा हुआ है । इसका रचनाकाल सं० १५६३ भी कहीं-कहीं 1. N. B. Divetia-Gujarati Language and Lit. Vol. II, Page 49 २. देसाई, पूर्वोक्त, भाग ३, खंड २ पृ० १५७७-१५९२
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