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मरु-गुर्जर जैन गद्य साहित्य
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इसकी भाषा में 'गया', 'हुआ', 'खाधा', 'आविया', 'कीधा' आदि प्राचीन खड़ी हिन्दी के प्रयोग द्रष्टव्य हैं जो इस बात के प्रमाण हैं कि १४वीं - १५वीं शताब्दी तक की मरुगुर्जर भाषा और पुरानी हिन्दी में पर्याप्त एकता थी । जणावण, सणवाइ आदि शब्द इसकी प्राचीनता की सूचना देते हैं, साथ ही मरुभाषा के प्रभाव की शेष स्मृतियाँ हैं । 1
दयासिंह गणि-आप वृद्धतपागच्छ के भट्टारक जयतिलकसूरि के शिष्य थे । आपने सं० १४९७ ( श्रावण सुदि १४ शुक्रवार) में संग्रहणी बालावबोध' की रचना की । इसकी सं० १५४८ की लिखित हस्तप्रति से श्री दिवेटिया ने एक उद्धरण दिया है, जिसकी कुछ पंक्तियाँ उदाहरण स्वरूप यहाँ दी जा रही हैं- "सद्गुरु कहलि पूछि विशेष अर्थ ग्रहण करिव । जे भव्य जीव छइ तेहनइ ए संघयणिनु विचार कहता कर्मक्षयहोइ तह तणइ भव्यतणइ ए विचार जोइवु' जाणिवु जिम ते भव्य जीव नई ऋधिवृद्धि होइ ।" "
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आपने इस रचना के प्रायः ३५ वर्ष बाद सं० १५२९ में क्षेत्रसमास पर बालावबोध लिखा । इसके आदि में जो विवरण दिया गया है और रचना के अन्त में जो गुरु परम्परा दी गई है उससे निश्चय होता है कि इन रचनाओं के लेखक दयासिंह गणि एक ही व्यक्ति थे और उनके गुरु जयतिलक सूरि थे । उस समय वृद्धतपागच्छ के गच्छनायक रत्नसिंह सूरि थे । दोनों बालावबोधों की गद्य भाषा-शैली में समानता है और वे दोनों रचनायें एक ही व्यक्ति की हैं ।
"तपागच्छ बड़ी पोसाल श्री रत्नाकर सूरि नइ गच्छि भट्टारक श्री जयतिलक सूरिनई पाटि गच्छनायक भ० श्री रत्नसिंह सूरि नई सानिध्यइं प्रतिदिन श्री जयतिलक सूरिनो शिष्य पं० दयासिंह गणि बाला० वार्त्तारूप पण लखइ छइ नवो करइ छइ ।" "
माणिक सुन्दरसूरि - आप मेरुतुंगसूरि के शिष्य थे । आपने 'चन्द्रधवल धर्मदत्त कथा', नेमीश्वरचरितफागबन्ध ( सं० १४७८ ) पद्य में लिखा है । आपकी प्रसिद्ध गद्य कृति 'पृथ्वीचन्द्रचरित्र' सं० १४७८ की रचना है । यह १. श्री एन० बी० दिवेटिया - दि हिस्ट्री आफ गुजराती लैंग्वेज एण्ड लिटरेचर पृ० ४५
२. मो० द० देसाई - जैन गु० कवि भाग १ पृ० १८०
३. वही भाग ३ खंड २ पृ० १५७६
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