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मरु-गुजर जैन गद्य साहित्य
५७९ महम्मद तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद बनाया, राजधानी तो पुनः दिल्ली लौट आई किन्तु दिल्ली की खड़ी बोली वही रह गई और इसमें १४ वीं शताब्दी से ही गद्य-पद्य का साहित्य लिखा जाने लगा। इसके प्रथम लेखक सूफीसंत गेसूदराज वंदानवाज थे जिनका जन्म सं० १३७५ में दिल्ली में हआ था और अपने पिता के साथ वे देवगिरि जाकर बस गये थे । इनकी भाषा में १४ वीं शताब्दी की दिल्ली की भाषा का पूरा प्रभाव दिखाई पड़ता है। आपकी तीन पुस्तकें मेराजुल आशकीन, हिदायतनामा और रिसाला-ए-बारह का उल्लेख मिलता है। इनमें खड़ी बोली का प्राचीनतम गद्य सुरक्षित है। एक उदाहरण देखिये'निर्गुन हुआ तो शफा पावेगा, तबीब फरमाये त्थू परहेज करे तो उन्ने वी तबीब होवेगा।' या 'पीर मना किए तो परहेज करना।' इनमें करना, होवेगा आदि क्रिया और 'उन' सर्वनाम तथा परसर्ग 'ने' का प्रयोग द्रष्टव्य है। वाक्य विशेषण और विशेष्य खंडों में बंटे हए हैं। ये लक्षण प्रौढ़ खड़ी बोली गद्य के 'मेराजुल आशकीन' में उपलब्ध हैं। इन लेखकों ने हिन्दीपन का बराबर ध्यान रखा और पुस्तकों का नाम भी नौरस, सवरस, नेहदर्पन, दीपक पतंग आदि रखा है । वजही इन लेखकों में पर्याप्त प्रसिद्ध हैं।
खड़ी बोली के साथ ही शौरसेनी अपभ्रंश से उत्पन्न व्रजभाषा व्रजक्षेत्र की लोकभाषा के रूप में १३ वीं शती से ही प्रयुक्त होने लगी थी। भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप धार्मिक प्रभाव और अपने स्वाभाविक माधुर्य के कारण यह शीघ्र ही विस्तृत क्षेत्र की काव्यभाषा बन गई। यह सत्य है कि इसमें पद्य अधिक लिखा गया किन्तु गद्यरचनाओं का भी पूर्णतया अभाव नहीं है। व्रज भाषा गद्य के छिटपुट प्रयोग तो नाथपंथियों की रचनाओं से ही ढढ़े जा सकते हैं । वस्तुतः प्राचीन रचनाओं जैसे उक्तिव्यक्तिप्रकरण, प्राकृत पैङ्गलम आदि में खड़ी बोली, ब्रजभाषा, राजस्थानी, अवधी और गुजराती तक के बीज मिलते हैं । अतः इनमें ब्रजभाषा के प्रयोग भी प्राप्त होते हैं, किन्तु उसके बाद प्रायः दो सौ वर्षों तक व्रजभाषा गद्य का कोई प्रामाणिक उदाहरण नहीं मिलता। उस समय इस दायित्व का निर्वाह शौरसेनी की जेठी बिटिया राजस्थानी या मरुगूर्जर ने उत्तमढंग से सम्पन्न किया। इसलिए इसमें प्राचीन गद्य के प्रचुर उदाहरण प्राप्त होते हैं जिनका विवरण प्रस्तुत करना ही अभीष्ट है। वस्तुतः व्रजभाषा गद्य का विकास पुष्टि सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा ही संभव हुआ किन्तु इनमें विट्ठलनाथ को छोड़कर अन्य आचार्य और उनकी रचनायें हमारे आलोच्य काल सीमा के बाद की हैं । अतः इनका विवरण यथास्थान ही उचित होगा।
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