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________________ ५७८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कीर्तिलता के छन्दों के बीच बीच में इसी प्रकार के गद्य खण्ड प्राप्त होते हैं । विद्यापति ने इसे 'पुरुष काहाणी हउं कह' काहाणी कहा है । इससे पता चलता है कि उस समय तक गद्य में कथा आख्यायिका के लिए काहाणी शब्द का प्रयोग प्रचलित हो चुका था। इसके द्वारा परवर्ती कहानी और गद्य का प्रारम्भिक सूत्र मिलता है। शलाकापुरुषों के गुणानुवाद करने वाले चरितकाव्यों की अनेक विशेषतायें कीतिलता में मिलती हैं। तत्कालीन मध्यदेश की शिष्ट भाषा के रूप में दिल्ली की कौरवी या खड़ी बोली का प्रचार उत्तर भारत से लेकर दक्कन तक हो रहा था। दक्कन में इसे 'दक्खिनी' के नाम से पुकारा जाने लगा था। ग्रियर्शन ने इसे मूलतः गङ्गा के ऊपरी द्वाबे, मेरठ और पश्चिमी रुहेलखण्ड की ठेठ बोली बताया है। इस प्रकार मध्यदेश और दिल्ली की बोली होने के कारण इसका बोलचाल, व्यापार-व्यवहार की भाषा के रूप में व्यापक प्रचलन हो गया था। बोलचाल की भाषा होने के कारण यह गद्य के लिए अधिक उपयुक्त थी। इसीलिए अन्य समकालीन देश्य भाषा-बोलियों की अपेक्षा इसमें गद्य का विकास पहले हुआ। इसके प्राचीन प्रयोग उक्तिव्यक्तिप्रकरण, वर्णरत्नाकर आदि में मिलते हैं। नाथपंथियों की रचनाओं से अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। गोरखनाथ, चरपटनाथ, चौरङ्गीनाथ आदि की रचनाओं में खड़ी बोली के पर्याप्त प्रयोग प्राप्त हैं। सिद्ध साहित्य में खड़ी बोली के प्रयोग अपेक्षाकृत कम मिलते हैं किन्तु उनका नितान्त अभाव नहीं है। परबतसिद्ध कृत 'भूगोल पुराण' के सम्बन्ध में आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि यह रचना १४ वीं शती से कुछ पूर्व की होगी। इसकी भाषा में खड़ी बोली का प्रारम्भिक प्रयोग देखिये :_ 'सुमेरु पर्वत ऊपरि चारि दिशा चारि पुरिया है। कउण कउण पुरी क उण कउण दिशा है । पूर्व दिशा आगै ऊपरि पृथ्वी ऊपरि चउबीस सहस्र जोजन अम्रितपरी ऊची है। तहां राजा इन्द्र राज करता है।2।। बोलचाल की भाषा के रूप में खड़ी बोली 'दक्खिनी' के नाम से बरार, हैदराबाद, महाराष्ट्र और मैसूर आदि प्रदेशों में १३ वीं शताब्दी से ही प्रचलित हो रही थी। इन प्रदेशों के प्राचीन राज्यों चालुक्य, यादव, बहमनी आदि का उत्तर भारत से घनिष्ठ सम्बन्ध था, किन्तु दक्षिण में खड़ी बोली के प्रचार का श्रेय मुसलमानों के राज्य विस्तार एवं प्रभाव विस्तार को है। 1. G. A. Grierson-Linguistic Survey of India, Vol. IX, part I, p. 47 २. नाथ सिद्धों की बानियां-परिशिष्ठ प० ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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