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मरु-गुर्जर जैन गद्य साहित्य
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बीच में गद्य खण्ड उपलब्ध हैं । इसमें तत्कालीन प्रचलित सात बोलियों के नमूने मिलते हैं ।
नवोदित देश्यभाषाओं में पूर्व में मिथिला से लेकर पश्चिम में गुजरात तक गद्य लिखा जाने लगा था । उक्तिव्यक्तिप्रकरण की समकालीन रचना 'वर्णरत्नाकर' मैथिली अवहट्ट की महत्त्वपूर्ण रचना है । इसके लेखक ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने सात कल्लोलों में बाट कर नायक-नायिका ऋतु, वन आदि का विशद एवं मनोरम वर्णन किया है । महाराष्ट्र में रचित ज्ञानेश्वरी गीता की भाषा में भी अपभ्रंश से नवोदित मराठी के प्रयोग दिखाई पड़ते हैं । वर्णरत्नाकर की शैली में रचित कथारत्नाकर, आभाणक रत्नाकर ओर बैजनाथकलानिधि आदि अन्य गद्य कृतियाँ भी उल्लेखनीय हैं । कथारत्नाकर सं० १३१९ में रचित नरचन्द्र सूरि की वर्णनात्मक रचना है जो १५ तरंगों में विभक्त है । 'बैजनाथकलानिधि' की भाषा से अनुमान होता है कि यह रचना दक्खिणी गुजरात में लिखी गई होगी, यथा- 'आतां : नगर वर्णन । आटालिया । अपरिया । मालीया । गजद्वारे । खड़की द्वारे ।... करु आड़े नडे चौकिया धवल हारें वसुआरे मालवधे कोच निबद्धे कोठारे 2 कोटिवा ।"
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मैथिली गद्य की अन्य रचनाओं में विद्यापति ठाकुर कृत कीर्तिलता और कीर्तिपताका का नाम महत्त्वपूर्ण है । इनमें प्रयुक्त गद्य खण्डों की शैली संस्कृत की अलंकृत गद्य शैली के समान है जिसमें लम्बे-लम्बे समासयुक्त वाक्य और विशेषण पर विशेषण जड़ने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है । कहीं कहीं एकाध क्रिया अथवा अव्यय छोड़कर कीर्तिलता में प्राप्त समस्त शब्दावली संस्कृत या तत्सम शब्दों से निर्मित है। इसकी रचना -पद्धति प्राकृत के कथा - आख्यायिका की परम्परा से सम्बद्ध है । इस प्रकार इसकी भाषा-शैली संस्कृत से और संरचना पद्धति प्राकृत से प्रभावित होने के कारण यह दोनों परम्पराओं की सम्पदा से सम्पन्न एक उत्तम कृति है । इसके गद्य का एक नमूना प्रस्तुत है :
'जेन्हे रात्रे अतुलतर विक्रम विक्रमादित्य करेओ तुलनाओ साहस साधि पातिसाह आराधि दुष्ट करेओ दप्प चूरओ पितृवैर उद्धरि साहि करो मनोरथ पूरेओ ।"
१. हिन्दी साहित्य का बृहत इतिहास, खंड ३ पृ० ४५३ ( ना० प्र० सभा, काशी) २. विद्यापति - कीर्तिलता पृ०
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