________________
मरु-गुर्जर जैन गद्य साहित्य
५७५
"सुहावगाह णिम्मल जलासओ। तरुण तरुजाणरिद्धि रमणीओ। कमल सर संड मंडियासा मुही। सुस्साय फल भरोणमिय वच्छपला वासिय पहिय जण समाउलो । सव्वोवसाग भय रहिओ। चाउवण्ण समाउत्तो।"1 ___ शुद्ध गद्य में लिखी प्राकृत की रचना 'वसुदेवहिण्डी' से यह प्रमाणित होता है कि प्राकृत में गद्यबद्ध कथायें अवश्य लिखी जाती रही होगी। इसमें वसुदेव के प्रवास की कथा है । इस कथा शैली पर बाद में अनेक कथा ग्रन्थ लिखे गये जैसे पादलिप्ताचार्य कृत तरंगवतीकहा, हरिभद्रसूरि कृत समराइच्चकहा आदि, किन्तु इनमें अधिकतर पद्य का प्रयोग किया गया।
प्राकृत-अपभ्रंश में लिखित अनेक छोटी-मोटी रोचक कथाओं के प्रमाण मिलते हैं । ऐसी कुछ रचनाओं की सूचना उत्तराध्ययन की टीका में पाई जाती हैं । उद्योतनसूरि कृत 'कुवलयमालाकथा (सं० ८३५ ) ऐसी ही एक प्रसिद्ध कथाकृति है। नमूने के रूप में इसका एक उदाहरण निम्नांकित है :
'सयलं पुहुइमंडलं परिभमिऊण संपत्तो महुराउरीए । एत्थ एवकम्मि अणाहममंडवे पविट्वो। अवियतत्थ ताव मिलियालए कोड्ढीए, वलक्ख खइयए। दीण दुग्गय । अन्धलय । पंगुलय । मंदुलय। मडहय । वामणय । छिण्णणासय तोडिय कण्णय।"
इस रचना में तत्कालीन बोलचाल की भाषा के भी नमूने मिलते हैं। अतः यह तत्कालीन गद्य भाषा का प्रामाणिक उदाहरण है। जहाँ तक अपभ्रंश का प्रश्न है, इसमें गद्य अपेक्षाकृत कम लिखा गया क्योंकि गद्य में प्रायः बोलचाल की जन-सामान्य भाषा का ही प्रयोग होता है और अपभ्रंश १२ वीं शताब्दी तक जनता के बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी अतः अपभ्रंश में गद्य का कम लिखा जाना स्वाभाविक ही है। डॉ० टेसीटोरी की साक्षी पर श्री दिवेटिया का मत है कि ११वीं शती के पर्वार्द्ध से ही अपभ्रंश का युग समाप्त समझना चाहिये । आचार्य हेमचन्द्र ने जब अपभ्रंश का ध्याकरण लिखा तब वह जनता के बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी। १. श्री हरिमोहन श्रीवास्तव-मध्यकालीन हिन्दी गद्य पृ० २३ २. आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी-हिन्दी साहित्य का आदिकाल पृ० २० पर उद्धत 3. We may safely put up the limit a little later than Dr. Tessitory
puts it, and say the first half of the Eleventh century said the extinction of Apabhramsa of Hemchandra's Grammar. -N. B. Divatia-History of Gujarati Language and Literature Vol. II, Page 2.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org