________________
५७४ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास स्कंध अधिकांशतः गद्य में ही लिखे गये। सूत्रकृतांग में यद्यपि पद्यभाग अधिक है, किन्तु शेष अंगआगम स्थानांग, समवायांग, भगवती ( व्याख्या प्रज्ञप्ति ), ज्ञाता, उपासकदशा, अन्तकृद्दशाङ्ग, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक और इसी प्रकार उपांग साहित्य के लगभग सभी ग्रंथ प्राकृत गद्य में ही हैं। चार छेदसूत्र, अनुयोगद्वार, आवश्यक आदि प्राकृत गद्य की ही रचनायें हैं। यह गद्य साहित्य ई० पू० पांचवी शती से ईसा की पांचवी शती तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में लिखा गया। सच तो यह है कि प्राकृत में जो गद्य साहित्य मिलता है वह प्रायः जैन परम्परा में ही मिलता है। अन्यत्र जो अत्यल्प गद्य साहित्य मिलता है वह ऐसी कृत्रिम भाषा शैली में लिखा गया है कि उसे प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता।
प्राकृत गद्य का प्रयोग स्त्रियों और सामान्यजनों के संवाद के लिए संस्कृत नाटकों में भी यत्रतत्र मिलता है। इन नाटकों में प्रयुक्त भाषा आगे क्रमशः कृत्रिम होती गई, साथ ही यह रूढ़ि बन गई कि स्त्रियाँ और विदूषक शौरसेनी प्राकृत तथा निम्नवर्गीय पात्र मागधी का प्रयोग करें। संस्कृत मिश्रित प्राकृत में विपूल जैन आगमिक व्याख्यात्मक गद्य साहित्य लगभग सातवीं शती में चणियों के रूप में लिखा गया। गद्यसाहित्य का सर्वाधिक सृजन जैन महाराष्ट्री और जैन शौरसेनी प्राकृत में क्रमशः श्वेताम्बर और दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा किया गया। इनमें जैनसिद्धांत एवं व्याख्या ग्रन्थ पर्याप्त मात्रा में लिखे गये। महाराष्ट्री प्राकृत में पद्य की और शौरसेनी में गद्यसाहित्य की मात्रा अधिक पाई जाती है।
प्राकृत के तत्कालीन साहित्यिक गद्य का स्वरूप कथा-आख्यायिकाओं में अधिक पाया जाता है। भामह ने आख्यायिका को 'ललित कथायुक्त मनोहर गद्य' है। कथा के लिए छन्द का बन्धन अनिवार्य नहीं था। दण्डी ने कथा और आख्यायिका को मूलतः एक ही प्रकार की रचना बताया है । 'बृहत्कथा' प्राकृत की प्रसिद्ध रचना है किन्तु यह नहीं पता की वह गद्यबद्ध है अथवा पद्यबद्ध । ____लीलावइकहा ( ८वीं शती) के लेखक कोउहल ( कौतूहल ) ने इसे 'दिव्यमानुषी' कहा है इससे अनुमान किया जाता है कि उस समय मानुषी, दिव्य और दिव्यमानुषी नामक तीन कथा-प्रकार प्रचलित रहे होंगे। लीलावइकहा में प्रयुक्त गद्य द्वारा प्राकृत में लिखित कथाओं की गद्यशैली का अनुमान सुगम होगा, अतः उसका एक गद्यांश अवतरित किया जा रहा है :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org