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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इस महाकाव्य की कथा लौकिक है। इसमें ख्यातवृत्त नायक पद्धति को छोड़कर लौकिक नायक की परम्परा का सूत्रपात किया गया है। भविष्यदत्त एक व्यापारी का पुत्र है। इसकी रचना श्रु तपंचमी व्रत का माहात्म्य प्रतिपादित करने के लिए की गई है इसलिए इसका अपर नाम 'श्रुतपंचमीकहा' भी है। यह २० संधियों की रचना है। इसमें गजपुर के धनपाल नामक व्यापारी के पुत्र भविष्यदत्त की कथा का वर्णन है । धनपाल ने सरूपा नामक दूसरी सुन्दरी से शादी कर ली जिससे बंधुदत्त नामक पुत्र हुआ। धनपाल अब प्रथम स्त्री और पुत्र की उपेक्षा करने लगा। भविष्यदत्त अपने सौतेले भाई से दो बार धोखा खाकर बहत कष्ट पाता है किन्तु अन्त में उसे सफलता मिलती है। इसमें दो विवाह के दोष और दो प्रकार के अच्छे-बुरे चरित्रों वाले पात्रों का गुण-दोष कुशलता पूर्वक दिखाया गया है।
धनपाल (द्वितीय)-पूर्व में आप ब्राह्मण थे फिर जैन, फर्रुखाबाद निवासी श्री सर्वदेव के पुत्र थे। आप प्रसिद्ध परमार नरेश भोज के सभापंडित थे। संस्कृत-प्राकृत के प्रगाढ़ पंडित और सुकवि थे। आपकी रचना तिलकमंजरी प्रसिद्ध है। 'पाइथलच्छीनाममाला' भी (प्राकृत कोष) आपकी रचना बताई जाती है। इनकी रचना 'सत्यपूरमंडनमहावीरोत्साह' की चर्चा पहले की जा चुकी है। यदि यही धनपाल इसके लेखक हैं तो इसका निश्चित समय ११ वीं शताब्दी है क्योंकि भोजराज सन् १०६६ में गद्दी पर बैठा था और सोमनाथ पर चढ़ाई सन् १०८० में हई थी। इसी समय धनपाल रहे होंगे। सांचौर में स्थापित महावीर की मूर्ति के आक्रमणकारी के हाथों बच जाने पर भक्त बड़े उत्साहित हुए थे, उसी भावना को इस लघुकृति में दर्शाया गया है। इसे नाहटा जी अपभ्रंश और मरुगुर्जर के मध्य की कड़ी मानते हैं और इसको भाषावैज्ञानिक महत्त्व की रचना बताते हैं । इसमें उत्तरकालीन अपभ्रंश की संज्ञायें जैसे नयरि और नाहु आदि तथा क्रियायें जैसे भग्गु, भिज्जइ, दिज्जय के साथ तमाम सर्वनाम, विशेषण, जैसे जेण, किम, तणु, तासु, भण, जण, आवहि, भावहि, सिरी आदि प्रयुक्त हैं। तिलकमंजरी को आलोचक कादम्बरी के कोटि की रचना बताते हैं।
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