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मरु- गुर्जर की निरुक्ति
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'हरिवंशपुराण' जो १८ हजार पद्यों का संकलन है अप्रकाशित है। इसका रचनाकाल अनिश्चित है किन्तु अनुमानतः १०वीं-११वीं शताब्दी के बीच की रचना होगी। यहां भी वही कथा है जो अन्य हरिवंशपुराणों में स्वीकृत है। इसमें प्रकृति चित्रण और अलंकृत भाषा में काव्यमय वर्णन प्राप्त होते हैं । शृंगार, वीर, करुण, मनोहर और शान्त रस का यत्र-तत्र अच्छा पुट मिलता है। इस ग्रंथ में १२२ संधियां हैं। संधियों में कड़वकों की कोई निश्चित संख्या नहीं है । संधियों के अन्तिम धत्ता में धवल शब्द का प्रयोग मिलता है। इनके गुरु का नाम अम्बसेन था। इसमें देवनन्दि, वज्रसूरि, महासेन और रविवेण, जिनसेन तथा पद्मसेन आदि का उल्लेख है, इनकी भाषा का एक उदाहरण द्रष्टव्य है :
"जंबू दीवहि सोहाणु असेसु, इहि भरन खेत्तिणं सुरणिवेसु ।' इसमें महावीर के जन्मस्थान कुण्डग्राम का वर्णन किया गया है।
धनपाल-जैन साहित्य में धनपाल नाम के तीन विद्वान् प्रसिद्ध हैं । प्रथम धनपाल (दिगम्बर) १० वीं शताब्दी में 'भविसयत्तकहा' के लेखक थे। सन् १८१३-१४ ई० में जर्मन विद्वान् हर्मन जैकोबी को अहमदाबाद के जैन ग्रन्थभण्डारों का अवलोकन करते समय इसकी प्रति प्राप्त हुई। उसे स्वदेश ले जाकर उन्होंने उसका गहन अध्ययन किया और सन् १९१८ में पांडित्यपूर्ण भूमिका के साथ इसे म्युनिख में प्रकाशित कराया। डॉ० जैकोबो के संस्करण के आधार पर सन् १९२३ में श्रीचिमनलाल दलाल और गुणे ने इसके अंग्रेजी संस्करण को गायकवाड़ ओरियन्टल सीरीज से प्रकाशित कराया। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के साथ अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन का मार्ग खुल गया।
धनपाल के पिता का नाम मयेश्वर या महेश्वर था। ये धक्कड़ वैश्य वंश में उत्पन्न हुए थे। इनकी माता का नाम धनश्री था। इन्हें भी अपनी प्रतिभा पर अभिमान था और स्वयम् को सरस्वती पुत्र (सरसइ बहुल्लद्ध महावरेण) कहते थे। जैकोबी ने इनका समय १० वीं शती माना है। प्रो० भयाणी ने भविसयत्तकहा की भाषा के आधार पर इसे स्वयंभू के पश्चात् और हेमचन्द्र से पूर्व की रचना बताया है। आप शोभन मुनि के भ्राता थे। १. डा० हरिवंश कोछड़ 'अपभ्रश साहित्य' पृ० १०३
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