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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अज्ञातकवि कृत 'अनाथीरिषि चौ०' (६३ कड़ी) सं० १५८९ वे पूर्व की रचना है । इसकी प्रथम कड़ी प्रस्तुत है :
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'सिद्ध सवेनइ करू' प्रणाम, जेहे पुण प्रामिषं उत्तम ठाम । साधु सवेनइ न करजोडि भव भमिवा जिणि भांजी खोडि ।
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अन्त उत्तर गुणे करी संजुत्त, गुपतिइ गुपतिउ दंडविरत्त,
पंखीनी परिहलू थइ, मोह विगत जे विचिरय मही । ६३ । ' अज्ञात कवि - जम्बूस्वामीगीत (३७ कड़ी) सं० १५९७ से पूर्व की रचना है । इसमें जम्बूस्वामी का माहात्म्य चित्रित है । इसका आदि देखिये :'सेठि रिषभदत्त राजग्रहि वसई, तास नारि धारणि उल्लसइ,
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धारणी अपुत्री होने से दुखी थी । गुरु ने उसे नित्य जम्बू स्वामी का चरित्र पाठ करने को कहा, जिसके फलस्वरूप उसे पुत्र प्राप्ति हुई । इसका अन्तिम छन्द उदाहरणार्थ प्रस्तुत है :
'प्रभव स्वामी पांच सिइ नई, मायताय मेली करइ,
सुख संजम सहिता बांदु काज संघला जिम सरइ ॥ ३७ ॥ *
विमलधर्म के किसी शिष्य ने 'जीराउलीपार्श्वनाथविनति' (गाथा १८) और 'महावीर वीनती' ( १४ कड़ी ) नामक रचनायें सं० १५२० में लिखीं । कवि ने रचना समय का उल्लेख स्वयं किया है, यथा :
'संवत पनर वीसोतरइओ, जेठह सुदि दसमि उच्छव करइ ओ,
जे नरनारी नित भणइ ओ, नवनिधि घरि विलसइ तीह तणइ ओ ।"
अज्ञात कवि कृत 'उदयचूला महत्तराभास' नामक रचना जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय (सं० मुनि जिनविजय ) में संकलित है । सम्पादक महोदय ने उसके रचनाकार और रचनाकाल का विवरण नहीं दिया है। श्री लक्ष्मीसागर सूरि ने उदयचूला को महत्तरापद प्रदान किया था । इनके पिता का नाम कर्मसी और माता का करमादे था । आप शिवचूला की पट्टधर थीं । आपके भाषण कला की बड़ी प्रसिद्धि थी । कहा गया है
१. श्री देसाई - जै० गु० क० - भाग ३, पृ० ६०२
२ . वही ३. वही
पृ० ६२३-२४
पृ० ५५३
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