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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विरासी नवि पाय पड़ती, दोष निज अंगी करी वन्दति मिच्छामि दुक्कडं सर्वन्यान सिरीवरी, ती उदयनकुमार चरितं दया जिणिमनि अणुसरी, सुणउतस आख्यान अनोपम, भविय मनि उद्यम घरी ।" "
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'बंकचूलरास' – इस रास में बंकचूल द्वारा चार नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करते हुए मुक्ति प्राप्त करने की कथा संक्षेप में कही गई है । इसकी भाषा सरल मरुगुर्जर है । भाषा के नमूने के लिए इसके आदि और अन्त छन्द प्रस्तुत किए जा रहे हैं
आदि ' आदि जिनवर आदि जिनवर पमुह चउवीस |
तित्थंकर पणमेव सवि, धरिय चिति सरसति सामिणि । तिहुयण जण मुखमण्डणी, वागवाणि वर हंसगामिणि । तास तणय सुपसाउलई करसिउं कवित्त रसाल, वकचूल राय पालिया, नीम च्यारि सुविशाल । अन्तिम छन्द इस प्रकार है
' विनय करी गुरुना पग नमइ, राजरिधि ते नवि गमइ, गणसइ जे संसार असार, ते पामेसि भवनो पार । बंकचूलनू अह चरित्र, अकमनां सांभलो पवित्र, सांभलता हुइ पाव पणास, सयल संघनी पूरइ आस । ९५ । ' 2
इसके भी रचयिता का नाम-पता अज्ञात है और न यही पता है कि यह रचना किस वर्ष लिखी गई किन्तु यह १६वीं शताब्दी की रचना सर्वमान्य है ।
'पुण्याढ्य नरेश्वररास ' - यह अज्ञात कवि कृत रचना सं० १६२६ से पूर्व की होगी क्योंकि इसकी उस वर्ष की लिखी हस्तप्रति प्राप्त है । अतः इसे १६वीं शताब्दी के अन्तिम दशक की रचना अनुमानित किया जा सकता है । इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
:
वन्दिय वासुपूज्य जिन स्वामिय पामीय पुण्य प्रमाण, श्री पुण्याढ्य नरेसर गायसु, सुणीय निर्मल जाण ।
3.
१. देसाई – जै० गु० क० - भाग ३, पृ० ६४३-६४४ २ . वही ३. वही
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