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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
इसकी अन्तिम पंक्तियाँ निम्नांकित है :
'तु रे शिवपुर वासि पहूता राजन अमर करइ जयकार, श्री पुण्याढ्य नरेसर प्रणम् सिद्धि रमणि सिणगार । मुगति पहूता मूरती पेखी, सार करु मझ स्वामी, भवि भवि महाऋषीश्वर वांग, जिनशासन हुँ पामी ।'
इसका विषय, इसकी रचनाशैली एवं भाषा सामान्य मरुगुर्जर जैन रचनाओं की भाँति है, कोई अतिरिक्त वैशिष्ठ नहीं है ।
'पुण्यसाररास ' - - इसमें भी पुण्य का ही महत्व समझाया गया है । इसके भी लेखक का नाम अज्ञात है । पुण्य का महत्व समझाते हुए कवि लिखता है :
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'पुणिहि उतिम कुलनइ जानि, पुण्यइ हि . लहीइ पुहवीख्याति, पुणिहि धणकण कंचण घणां, पुण्यइ हि वयरी हुइ आपणा ।'
इसके आदि का वस्तुबन्ध इस प्रकार है :
सयल जिनवर सयल जिनवर सव सुहकर सेवइ जाण कप्पतरु सुजणलोय विहुअ अवि आसइ, चउवीस चतुरमुह, धम्म मुल चडविह पयासइ । इह लोक वंछिय करणि, परभवि सर्ग विमाण, श्री पुण्यसारकुमार जिम, लह्यां ते करू वखाण ।' इसके अन्त की पंक्तियाँ देखिये :
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'पुणिहि आपि नरपति मान, पुणिहि घरि नित्य मंगलगान, पुणिह सफल करइ संसार, जिम सुणीइ पुण्यसार कुमार ।"
'परदेशी राजारास '-- इसके भी लेखक का नाम अज्ञात है । इसकी भाषा
शैली के नमूने के लिए प्रारम्भ की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है :
वस्तु
वीर जिणवर वीर जिणवर पाय पणमेवि
राय प्रदेशी तेहनु भणिसु रास उल्हाय आणीय, करइ कुकर्मह कोडि परि पछइ लोक परलोक जाणीय,
१. श्री मो० द० देसाई - जै० गु० क० भाग ३, पृ० ६४४
पृ० ६४५ ३, पृ० ६४६
वही वही
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