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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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लिखता है कि संघ में नरनारी गुरुवंदन हेतु आते हैं और वसंतऋतु में नृत्यगानादि करते हैं । इस अर्थ में इसका फागु नाम सार्थक है, यथा
'रूपिइं कउतिग करतिअ धरतिअ रंभ तगतागु, वसंत ऋतुराय खेल ई मेलइ गाती
फागु । "
इस फागु की चर्चा विनयचूला के नाम पर इससे पूर्व की जा चुकी है और वहाँ भी यह आशंका व्यक्त की गई है कि यह रचना विनयचूला की नहीं बल्कि उनके आग्रह पर किसी अज्ञात कवि द्वारा जो हेमरत्नसूरि का भक्त शिष्य रहा होगा, की गई है । अतः इसके पुनः विस्तार की अपेक्षा नहीं है ।
'राणकपुर मंडन चतुभुज आदिनाथफाग' - यह भी अज्ञात कवि की रचना है । यह सं० १५५७ से पूर्व लिखी गई होगी क्योंकि इसकी उसी वर्ष की लिखी हस्तप्रति प्राप्त है । यह प्राचीन फागुसंग्रह में १८ वें क्रम पर प्रकाशित है | मारवाड़ में सादड़ी के पास राणकपुर के जैनमन्दिर में आदिनाथ की चतुर्मुखी मूर्ति स्थापत्य की दृष्टि से बड़ी उत्तम है। इसे राणकपुर के श्री धरणाशाह ने बनवाया था। यह फागु उसी की वन्दना में अर्पित है । यह स्थापना सं०१४९६ में हुई थी अतः यह फागु १६वीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध में ही लिखा गया होगा । सोमसुन्दरसूरि के किसी शिष्य ने यह रचना की होगी क्योंदि मेवाड़ के राणाकुंभा के अधिकारी धरणाशाह ने यह मन्दिर सोमसुन्दरसूरि के उपदेश-आदेश से ही बनवाया था । इसमें राणकपुर, धरणाशाह एवं मन्दिर के शिल्प का सुन्दर परिचय है । यह ८१ कड़ी का फागु है । इसका छन्द-बन्ध फागु और रासक से निर्मित है । कवि कहता है कि कुम्भकर्ण के शासन में सम्पन्न नगरी राणकपुर की बराबरी न कर सकने की ग्लानि से ही लंका ने जलवास ले लिया था, यथा'जिणि जीता अमरावती, नासती गइय आकासि, लंका शंका करती अ, तरतीय रहीय जलवासि ।'
उस नगर के तमाम धनकुबेरों में धरणाशाह अग्रगण्य थे । मूर्ति की वन्दना में कवि लिखता है
'विकाने कंचणमय कुंडल, तेजइ जाणे रवि ससि मंडल,
भामंडल झलकंति व जय जय ।
अथवा -
१. प्राचीन फागु संग्रह, पृ० ७७
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