SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 572
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है म गुर्जर जैन साहित्य 'रत्न अमूलक सरव सिद्धडी, जाणे किरि विश्मामित्र घड़ी, मदन मेखला भीजी रहइ, धीणु ऊपम केही कहइ । ६४ । ' *-- यह भी शृङ्गार प्रधान सरस काव्य रचना है । रचनायें हिन्दी रीति काव्य की पूर्व सूचना देती हैं । अज्ञात कवि कृत 'फागु' ११२ दोहों की लघु कृति है । इसका भी विषय फागु का परंपरित विषय है अर्थात् विरहिणी, बसन्त आदि । इस रचना में प्रिय बसन्त ऋतु में लौट कर घर आता है । प्रिय को देखते ही कृशगात विरहिणी खुशी के मारे फूल कर कुप्पा हो जाती है और उसके कंचुकी के बन्धन तड़तड़ाकर टूट जाते हैं, यथा 'कांचूआ कंसण विमूटी आ रे, आव्यू मूं भरतार, हार हइड़ा हूं तु हरशी उरे, बालभं हइडुता हिरु रे । इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है : 'फागुण रति बसन्त षेलीय रे, हइडि हरष मन मां नाह ।' www Jain Education International १६ वीं शताब्दी की ये इसमें भी बसन्त का वर्णन विप्रलंभ एवं संभोग शृङ्गार के उद्दीपन विभाव के रूप में ही हुआ है । ये सभी रचनायें शृङ्गार रस प्रधान है, तथा फागु का स्वाभाविक स्वरूप हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं । 1 ५५५ बाहनुं फाग - यह भी अज्ञात कवि कृत रचना है इसमें बसन्त का शृङ्गारिक वर्णन नहीं है बल्कि जैनधर्मानुसार मुक्ति का मार्ग वाणिज्य मूलक रूपक द्वारा समझाया गया है । यह निश्चय ही किसी जैन विद्वान् की रचना है । इसी तरह की रचना १७ वीं शताब्दी के कवि कुशललाभ की 'श्री पूज्यवाहनगीत' भी है जिसमें कहा गया है कि तृष्णारूपी जल, अभिमान रूपी लहरें और मिथ्यात्व रूप जलचरों से भरे इस संसार समुद्र में वियषभोग की प्रलय वायु के थपेड़े खा-खाकर जीव निरन्तर भटकता रहता है इससे तारने वाले जिनचन्द सूरि हैं । प्रस्तुत फागु भी इसी प्रकार का है जिसमें कुल १२ दोहे हैं और लटकणियाँ के रूप में 'श्री जिन' की आवृत्ति है, यथा १. डा० भो० सांडेसरा - प्राचीन फागु संग्रह पृ० ११६ २ . वही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy