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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
५५३ साहित्य सृजन यदि धर्म प्रचार का साधन मात्र हो तो ऐसे साहित्य के प्रति आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की टिप्पणी को स्वीकार करना होगा।
अज्ञात कवि कृत 'कामीजनविश्रामतरंगगीत' भी एक जैनेतर कृति है इसका प्रथम छन्द देखिये :
'फागुणि फूली बीजउरडी तुनवरंग, पहुतल मास वसन्त तु,
बनि बनि तरुवर कूपल्यां तु नवरंग, परिमल कहणउ न जाइतु । वसन्त वर्णन के साथ यह फागु प्रारम्भ होता है । यद्यपि कवि ने इसका नाम फागु न रखकर बसन्त गीत रखा है किन्तु बसन्त-गीत का अर्थ फागु ही है। यह काव्य वर्णन-पद्धति और विषय-वस्तु की दृष्टि से फागु ही है। उदाहरणार्थ भौरों को सम्बोधित करता हुआ कवि कहता है :
'करणी कारणि भमरलउ तु भमसि म झाझिम राति तु,
काची कली न ऊगइ तु नवरंग, भोगवि नवनवी राति तु ।' विभिन्न प्रान्तों की सुन्दरियों की विशेषतायें बताता हुआ कवि लिखता है :
'चतुर सनागर गोरडी तुनवरंगगूजरि केरी नारि तु,
माधसिर भरी मरहठी तु नवरंग सोरठडीय सुजाणु तु । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ भी काव्य और भाषा शैली के नमूने के रूप में प्रस्तुत है :
'सींगी जलि भरि पाणीइंतु नवरंग छांटइ वाली वेस तु,
वृंदावनि गोरी मिली तु नवरंग हीयडइ हरष धरेवि तु ।३४॥2 अन्त में लिखा है
'इति शृङ्गार भावेन कामी जन विश्राम तरंग गीत सम्पूर्णम्' । इससे स्पष्ट है कि यह भी शुद्ध शृङ्गार रस प्रधान रचना है और धर्म प्रचार इसका लक्ष्य नहीं है, अतः ये विशुद्ध काव्य के अन्तर्गत परिगणनीय हैं।
अज्ञात कवि कृत 'चुपइ फागू'--इस फागु के साथ बारहमासे का रूप मिला-जुला है। इसमें प्रकृति और नारी के सौन्दर्य का वर्णन मनोहर ढंग से हुआ है । इसका प्रथम छन्द देखिये :१. डा० भो० सांडेसरा-प्राचीन फागु संग्रह पृ० १०८ २. वही
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