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________________ ५५२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दो छन्दों के बाद संस्कृत का श्लोक और उसके बाद पुनः महगुर्जर के छन्द हैं । प्रवत्स्यत्पतिकाविरहिणी कहती हैं : 'हांसलाविण किसिउ सरोवर, कोइल विण किसिउं राग, वालभं विणकिसिउं गोरडी, रहि रहि नाह अजाण । वह पति से जाते समय कहती है : 'कंत कायर मति जाइसि घर छांडी, तई जीवतइ हउतउ हूं जि रांडी। इसके वर्णन बड़े मनोहर हैं, वसन्त वर्णन का एक उदाहरण देखिये 'केसुअडा रुलीआमण, भमरला रणझणकार, चांपला चिहुं दिशि फलीआ, वनि वहिक इ सहकार ।। प्रकृति का उद्दीपन रूप में वर्णन देखिये : 'विरह संतावए पापीउ दाझए माझि शरीर, तन मन यौवन विलसए, नयणि न सूकइ नीर । वह मयूर से सन्देश भेजती है : 'एक मनु घरि आवि रे, मेल्हि है आनू मयल, स्त्री रस जीणि न माणीउ पुरुष नही ते बयल । इसी प्रकार वह चन्दा आदि को भी सम्बोधित कर अपना विरह निवेदन करती है। उसी समय उसका प्रिय परदेश से लोटा, कामिनी ने शृङ्गार किया और प्रिय के साथ संभोग में रत हो गई। यहाँ से कवि को संभोग शृङ्गार के वर्णन का अवसर मिलता है वह प्रिय से कहती है : 'रसिया रसि बेध्या रहि, भमर भमी रस लेउ, 'रसक सवेध न जाणता ते नर जीवइ काई।' रास के अन्त में कवि कहता है 'विरति वसंत सो आवीउ, फागुणि तरुणि गाई, राज करू रहीयां घणुं सरसति तणइ पसाइ ।५८।” यह शुद्ध सरस एवं शृङ्गारिक काव्य है, इसमें न कोई शिक्षा है और न अन्त में काव्य को शान्त रस में पर्यवसित करने का प्रयास है। यदि काव्य का उद्देश्य रस है तो ऐसी कृतियों का भी सम्मान करना होगा, किन्तु १. भो० सांडेसरा-प्राचीन फागु संग्रह पृ० २३४-२४० २. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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