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५५० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
'शशिकला पंचाशिका' की भाषा तो श्री देसाई जी के शब्दों में अति भ्रष्ट है क्योंकि इसकी ४० चौपाइयां मरुगूर्जर भाषा में शेष मरुगुर्जर मिश्रित संस्कृत में होने के कारण रचना अटपटी हो गई है। इसमें ऐतिहासिक हाकिम क्षितिपाल और उसकी पुत्री के स्थान पर कल्पित पात्र गुजरात के वीरसिंह और उनकी पत्री शशिकला को रखा गया है। इन्हें लेकर विल्हण ने जो काव्य लिखा, ज्ञानाचार्य की यह रचना उसी पर आधारित है। ज्ञानाचार्य ने शशिकला के पिता का नाम पृथ्वीचन्द्र रखा और उसे पाटण का राजा बताया है। इस काव्य में विल्हण ने राजकुमारी के साथ नायक द्वारा भोगे गये विलास सुख का उन्मादक चित्र खींचा है। जैन साध श्री ज्ञानाचार्य ने अपनी कृति का उपयुक्त आधार नहीं चना क्योंकि वे न तो कामोद्दीपक स्थलों का सही भाषान्तरण करने की स्थिति में थे और न उन्हें छोड़ कर रचना पूर्ण कर सकते थे, अतः द्विविधा में फंस कर यह रचना कुंठित हो गई है। इसकी भाषा पर गुजराती प्रभाव अधिक है। इसका आरम्भ इस प्रकार हुआ है :
'एक दिन बइठी सहिइर साथि हसि हरखि ताली देइ हाथि, सही कही सांभलि शशिकला, पंछ बात एक निर्मला। जिम विल्हण परकास्यूं सर्व, तिम तूं कहि मूकी मन गर्व,
कही कुमरी सुणिज्यो सहू, तेहने नेहनी बात प्रकाशं अह्म । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
'थयु विह्विल छोड़ी आगली, क्रीड़ा सुरत कीध तणि बली, वार वार संभारु तेह, प्राण पाहि बाहलु वर अह ।'
इसमें कुल ६० चौपाइयाँ हैं जिनमें से बीस संस्कृत गुजराती मिश्रित भाषा में है, शेष की भाषा भी विल्हण के भावों को यथावत् अभिव्यक्त करने में असमर्थ है । वस्तुतः इन साधुओं की भाषा उपदेश परक बातों को सरल ढंग से समझाने योग्य हैं किन्तु उच्च कोटि की ध्वनि, व्यंजना, माधुर्य आदि से रहित होने के कारण कोई बड़ी काव्यकृति का भाव वहन करने में अक्षम है। यह स्थिति सभी लेखकों की नहीं है अपितु कुछ तो तत्कालीन अन्य भाषा कवियों की तुलना में कहीं अधिक सक्षम भाषा शैली का प्रयोग अपनी रचनाओं में कर गये हैं। १. देसाई-जै० गु० क०-भाग १, पृ० १७४
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