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________________ ३५ मरु-गुर्जर जैन साहित्य ५४५ ___ यह रचना कवि ने रत्नागरपुर के नवपल्लव पार्श्व के मन्दिर में की थी। वंकचूलरास का रचनाकाल कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है :-- 'संवते पनरने पासठे चैत्रशुदतिथि छठि, गुरुवारे मंगलपुरे रच्यु गच्छ सोरठि। विन्ध्यवासिनी देवी का वर प्राप्त करने से सम्बन्धित इस पवाड़े के तीन खण्ड हैं । प्रथम खण्ड का अन्तिम छन्द देखिये : 'न्यान भणइ कणिपार कहूँ, पव्वाडउ परचन्ड, वंकचूल रा वर्णविउ अक पणी परिखंड ।। इसका प्रारम्भ कवि ने पूर्व कवियों की स्तुति से किया है, यथा 'ग्रन्थ अग्गउ ग्रन्थ अग्गउ किद्ध कवि श्रेणि, ते बुधि बहुली निमीय जगह माहि तणि सुजस लीद्ध । दूसरे खंड का आरम्भ कवि ने इस दोहे से किया है : न्यानचन्द्र कहि नृति करी, बांधू बीजू खंड, बंकचूल किम वर्णबू, पव्वाडउ परचंड ।' इसकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव यत्रतत्र दिखाई पड़ता है। सामान्यतया भाषा सरल किन्तु आवश्यकतानुसार सरस तथा सक्षम भी है। भ० ज्ञानभूषण (प्रथम)—आप भ० भुवनकीर्ति के शिष्य थे । बलात्कारगण में ज्ञानभूषण नाम के चार भट्टारक हो गये हैं। इन चारों में से प्रस्तुत ज्ञानभूषण प्रथम ने 'आदीश्वर फागू' की रचना की। आप विमलेन्द्र कीति के शिष्य थे किन्तु बाद में भुवनकीर्ति को अपना गुरु मान लिया था। ज्ञानभूषण और ज्ञानकीर्ति सगे भाई और गुरुभाई थे । ये गोलालारे जाति के श्रावक थे। ज्ञानभूषण वडसाजनों के और ज्ञानकीर्ति लोहड साजनों के गुरु कहलाते थे । ये गुजरात के रहने वाले थे । भुवनकीति के पश्चात् सागवाड़ा की भट्टा१. श्री देसाई-जै० गु० क०-भाग ३, पृ० ५४५ २. द्वितीय ज्ञानभूषण वीरचन्द के शिष्य थे और सं० १६०० से १६१६ तक भट्टारक रहे, तृतीय ज्ञानभूषण शीलभूषण के शिष्य थे (१७वीं शती) और चतुर्थ ज्ञानभूषण रत्नकीर्ति के शिष्य थे जो १८वी शताब्दी में हुए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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