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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसमें नेमि और राजुल की मधुर कथा के माध्यम से बारह मासों का वर्णन है । वेतालपचीसी और सिंहासनबत्तीसी अति लोकप्रसिद्ध' राजा विक्रमादित्य की कथाओं पर आधारित रचनायें हैं। वंकल की कथा द्वारा कविने संयम पालन का महत्त्व प्रतिपादित किया है। सिंहासनबत्तीसी का रचनाकाल कवि ने इस प्रकार बताया है :
संवत पनर वाणवइ, मागसिर मासपवित्त,
शुक्ल पक्ष दसमी दिनइ श्री गुरुवार अवित्त । इसके प्रारम्भमें सरस्वती की वंदना वस्तु छंद में की गई है, यथा
वंभ तनया बंभ तनया पाय पणमेवि; वपु धनसारह वर्ण जे धवल हंसजस वाहनि रज्जइ, धवल वस्त्र जे पंगरणि, धवलहार गुण कठि छज्जइ। धवल सिहासण आसणइ, धवलह पुस्तक पाणि, न्यान कहइ ताई सानधइ विक्रम कथा बखाणि ।
इसमें विक्रमादित्य के सिंहासन की वत्तीस परियां एक के बाद एक करके ३२ कथायें संगुफित करके कहती है जैसे गोभी या केले के पत्ते में से दूसरा पत्ता निकलता जाता है।
वैतालपचीसी में राजा विक्रम और बैताल से सम्बन्धित पचीस कथायें बड़े मनोरंजक ढंग से कही गई हैं। इसका प्रारम्भ इस छन्द से हुआ है :
'उदधिसुता सुत स्वामि रिपु, पिता नाभि उतपन,
तास सुता हूँ पयनमी, मागिस विमल वचन । गुरु परम्परा और रचना काल भी इसमें दिया गया है, यथा
'सोरठि गछि सोहामणा गुरु गरुआ गुणवंत, खिमाचन्द्रसूरीसधर जणि कीधउ क्रम अन्त । तास पाटि कहइ मन्दधी पंचवीशी वैताल,
ज्ञानचन्द्रसूरि इम वदइ, विक्रम गुण सविसाल । रचनाकाल 'संवत पनर तिउइ रचीचारु कथा विचित्त,
श्रावण वदितिथि नवमीइ सुरगुरुवार पवित्त । १. श्री देसाई-जै० गु० क०-भाग ३ पृ० ५४५
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