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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
५३१ इसकी रचना तिथि इस प्रकार बताई गई है
'संवत पनर वासठी जाणि, चरी रच उं मन उलट आणि,
आसोइ पूनिम सोमवार, करी चउपइ श्रुत आधारि । इसका अन्तिम छन्द देखिये
'मृगापुत्र ऋषि राजाओजी, जे गावइ नरनारी,
हेमविमल सूरि भण इ जी, ते तरस्यइ संसार ।' हेमहंसगणि--तपगच्छ के रत्नशेखर सूरि आपके गुरु थे। आपने सं० १५१५ में गिरनारचैत्यपरिपाटी (५० कड़ी) नामक ऐतिहासिक रचना लिखी जो पं० बेचरदास द्वारा सम्पादित होकर पुरातत्व वर्ष १ अंक ३ में प्रकाशित है। इसका प्रथम छन्द प्रस्तुत है जिसमें कवि ने गौतम और सरस्वती की वन्दना की है, यथा
'पणमवि गोयम सामि नामि जसु आठइ सिद्धी, सरसति अंबिक देवि बे भूवलय पसिद्धि । कर सिरि जोड़ी वीनवू ओ दिउ मउ मति माडी,
ऊजिल गिरिवर तणीय करिसु हिव चैत्र-प्रवाडी।' इसमें लेखक ने अपनी गुरु परम्परा का वर्णन करते हुए लिखा है
'श्री सोमसुन्दर गुरुअ गणहर सीस शिव सुखदायको, जयत श्री गुरु रयणसेहर सूरि तपगछ-नायको। तसु सीस लेसिहि हेमहंसिहिं थुणिय रेवयगिरिवरो,
जे भविअ भावइ तांह आवई सयलप्ति द्धि सयंकरो।' आप उत्तम गद्य लेखक भी थे। आपने सं० १५०० में 'नमस्कार बाला वबोध' लिखा जो संक्रान्तिकालीन गद्य भाषा का अध्ययन करने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
हेमकान्ति--आप सुमतिसागरसूरि के शिष्य थे । आपने सं० १५८९ (भाद० आठ, रवि ) में 'श्रावकविधिच उपइ' ( ८४ गाथा ) लिखा इसका प्रथम छन्द निम्नवत् है
'सकल कला गुण जिणवर जांणा, तेह तणी तहमे मांनु आण,
अंग उपांग नियुक्तिइ जोइ, सार वचन जिण वरना होइ।' १. श्री देसाई-जे० गु० क०-भाग ३, पृ० ४६१ २. वही
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