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५३४ मरु-गुर्जर जन साहित्य का बृहद् इतिहास
चन्द्रलेखा चौपइ में गुरु परम्परा नहीं दी गई है किन्तु यह पूरी सम्भावना है कि ये दोनों कृतियाँ एक ही कवि हर्षमूर्ति की हैं।
पण्डित हरिश्चन्द्र जैन पण्डितों में तीन हरिश्चन्द्र प्रसिद्ध हैं। प्रथम हरिश्चन्द्र संस्कृत के प्रसिद्ध कवि थे जिन्होंने धर्मशर्माभ्युदय' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है। दूसरे भट्टारक हरिश्चन्द्र बड़े उत्तम गद्य लेखक थे। इनके गद्य बन्ध्र का उल्लेख बाणभट्ट ने किया है। प्रस्तुत हरिश्चन्द्र तीसरे हैं। इनकी रचनाओं में मरुगुर्जर का प्रयोग मिलता है यद्यपि इनका झुकाव अपभ्रश की ओर अधिक था। ये अग्रवाल कुलोत्पन्न विद्वान् लेखक थे। इन्होंने पद्धड़ी छन्द में 'अनस्तभित व्रतसन्धि' की रचना की है जिसमें रात्रि भोजन का निषेध मनोहर ढंग से किया गया है। इस कृति में किसी कथा का सहारा कवि ने नहीं लिया है बल्कि स्वतन्त्र रूप से इसे १६ सन्धियों में पूरा किया है। इसकी भाषा अपभ्रश गभित और क्लिष्ट है । पता नहीं यह क्लिष्टता पांडित्य प्रदर्शन हेतु आचार्य केशवदास की तरह साभिप्राय है या मात्र अभ्यासवश है।
इनकी दूसरी रचना 'पंचकल्याण' है जिसमें तीर्थंकर के गर्भ, जन्म आदि पंच कल्याणकों का वर्णन किया गया है। कवि की भाषा और रचना के प्रतिपाद्य पर प्रकाश डालने के लिए एक उद्धरण प्रस्तुत है
'गभ्भ जम्म तप णण पुण महा अमिय कल्लाण । इस भाषा के आधार पर इन्हें मरुगुर्जर का कवि कहना कठिन है अतः अधिक उद्धरण एवं विबरण अपेक्षित नहीं है।
हेमविमल सूरि-आप तपागच्छ के १५ वें पट्टधर थे। आपने सं० १५६२ ( आसो शु० १५ सोम० ) में मृगापुत्र चौपइ' की रचना की। यह १०४ कड़ी की कृति हैं। इसके प्रारम्भ के दो छन्द भाषा के उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किए जा रहे हैं
'वीर जिणेसर प्रणम्पाय, अनइ बली गोयम गणहर राय, धर सरसति समरू हु देवि, चरिय मृगापुत्र रचउं संखेवि । सुग्रीव नयर छइ रलीयामणु, अति ससोभित वनतस तण।
राज करइ तिहां बलभद्र भूप, तस पटराणी अतिहि सरूप ।' १ श्री. मो० द० देसाई-जै० गु० क०-भाग १, पृ० ६८ और भाग ३
पृ० ५०३
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