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५३६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
'विमल वदन जसु दीपतउ, जिम पूनम तउ चंदजी,
मधुर अमृत रस पीवता, थाइ परमाणंद जी। इसकी अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार है :--
'श्री जिनहंस सूरि सरइ सइ हथि दीखिय शीस जी,
हरषी हरषकुल इम भणइ गुरु प्रतपउ कोडि वरीस जी'।६।' उपाध्याय हर्षप्रिय-आप खरतरगच्छीय क्षान्तिमन्दिर के शिष्य थे। आपने सं० १५७४ में 'शाश्वतसर्वजिनद्विपंचाशिका (गा० ५२) खंभात में लिखा । आपकी दूसरी रचना 'शीलइकतीसो ( ३१ गाथा ) है । शाश्वत सर्वजिन द्विपंचाशिका एक स्तुतिपरक रचना है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है :--
समरति सारदादेवि, त्रिभुवन तीरथ सासता ए, ते संख्या पभणेसु, ते जिन शासन जागता ए। वृषभानन वधमान चन्द्रानन तह वारिषेण,
ऐ चिहुं नाम समान सासय पडिमा त्रिभवणि ।' रचना काल और स्थान का निर्देश इस छन्द में किया गया है :
'पनर चिहुत्तरि तवन कीध, खंभातइ नयरि,
भणतां गुणतां नितु विहाणि सुह संपय तसु धरि ।" कवि कहता कि इस बावनी को पढ़ने से शेज गिरनार, सम्मेत शिखर आदि तीर्थों की यात्रा का फल प्राप्त होगा
'तिम सासय जिण इयाण बावन्नी भणंता,
श्री हर्णप्रिय उबझाय एम बोधि मांगइ रचिता।' शीलइकतीसों में शील का माहात्म्य दर्शाया गया है। कवि गुरु का स्मरण करता हुआ अन्त में लिखता है
'मन वचन काया तजी माया, विषय सुख मधु विदुआ, अरिहंत वाणी जीव जाणी, म करि नारी छंदुआ। जे शील लाधे जीव साधे, मोक्ष ना सुख ते सुण्यो,
श्री क्षान्तिमन्दिर गुरु प्रसादै हर्णप्रिय पाठक भण्यो ।' १. ऐ० जे० का० संग्रह क्र० सं० २१ २. श्री अ. च० नाहटा-जै० म० गु० क०-पृ० १४५ ३. वही
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