________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य
५३३
देखिये श्री मो० द० देसाई कृत जै० गु० क० भाग १ पृ० ४२ । यह रचना चन्द्रप्रभ, शुभशील, मेलासंघवी और संघविमल के अब तक इसके वास्तविक लेखक का निर्णय नहीं हो विद्वानों के सत्प्रयास की अपेक्षा रखता है |
नाम से जुड़ी है किन्तु पाया है । यह प्रश्न
-
संघमाणिक्य शिष्य – संघमाणिक्य के किसी अज्ञात शिष्य ने 'कुलध्वजचौपइ' की रचना की है जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार है :--
सारदसार नमुं सदा ससिवयणी सुजाण,
सरसति सामिणि समरतां सुख संपति दि वाणी । हंस वदन हंसवाहिनी, हरिहर सेविपाय, हरिलंकी मृगनयणी हीइ धरु तुम्हें माइ । '
इस चौपइ में कुलध्वजकुमार का चरित्र शील के आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया है । इसमें मुख्यतया दोहे और चौपइ छन्द का प्रयोग किया गया है। इसकी भाषा सरल मरुगुर्जर है, उदाहरणार्थ चौपइ की अन्तिम पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
.
'अहव कुलध्वज राजा कहयउ, बुद्धि पसाई जेहवु लहयु | जे नरनारी पालि शील, कुलध्वज नी परि करसि सील । शील प्रबन्ध मणि सांभली, तेह घरि लक्ष्मी अफलां फलइ । '
संयममूर्ति - आप कमलमेरु के शिष्य थे । आपने सं० १५९४ ( ज्ये० शु० ३ बुधवार ) में कलावती चौपइ ( गाथा २०१ ) और सं० १५९७ में 'गजसुकुमाल संधि' ( कड़ी ७० ) की रचना की । 'उदाइराजर्षिसंधि' नामक रचना के लेखक भी संयममूर्ति हैं । किन्तु इसमें लेखक संयममूर्ति ने अपने गुरु का नाम विनयमूर्ति दिया है । इसकी सं० १६६२ की प्रतिलिपि प्राप्त है । इसमें लेखक ने अपना नाम 'संजिम' लिखा है, यथा'उवज्ञाय श्री विनयमूरति सीस 'संजिम' इम कहइ, '
कलावती चौपड़ में संयममूर्ति लिखा है और गुरु का नाम कमलमेरु
कहा है:
'वाचक कमल मेरु सुपसाइ, कीयो कवित मन धरी उछाह विधि करी संयममूर्ति कहइ, भणइ गुणइते नवनिधि लहइ ।'
8
१. श्री देसाई - जै० गु० क० - भाग ३, पृ० ६३७
२. वही पृ० ६३८
वही पृ० ६०४-६०५
Jain Education International
-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org