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मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
है । इसका भक्तिकालीन रूप सधुक्कड़ी या खिचड़ी भाषा के नाम से जाना जाता रहा है । ये कवि अपनी भाषा संरचना में बड़े उदार होते थे, प्रादेशिक संकीर्णताओं से मुक्त थे, पर्यटनशील और संत कोटि के थे अतः सभी प्रदेशों की मिली-जुली भाषा शैली का प्रयोग करते थे ताकि सर्वत्र वह रचना समझी जा सके । इसे ही पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर कहा गया है जो प्रकृति से मिश्र भाषा है । सौभाग्यसागर के शिष्य ने भी वही भाषा अपनाई है ।
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संघकलश-आप
तपागच्छीय सोमसुन्दरसूरि,
मुनिसुन्दरसूरि, जयचन्द्रसूरि, विशालराज, रत्नशेखर और उदयनन्दिसूरि की वन्दना करके अपने प्रसिद्ध 'सम्यक्त्वरास' के रचना काल का निर्देश करते हैं'संवत पनर पचोतरइ ओ माल्हतड़े मागिसर रचीउ रास सु, तलवाड़ापुरि निपनुओ माल्हतड़े, पुन्यरस कलस संकाश सु० ।' १६०५ तलवाड़ा ) की
यह १६ वीं शताब्दी के प्रथम दशक ( सं० रचना है। इसमें आठ भास हैं । यहाँ भास का अर्थ ढाल से है । इसमें 'माल्हतड़े' शब्द भी किसी लोकगीत की देशी का ही अंश है। रास का मंगलाचरण देखिये
'परमाणंद रमानउ कंदो, पूनिम ससि जिम नयणाणंदो, चिदानंद मय जिणजयउ, केवल कमला लीलावासो, वासव सलहिय महिम निवासो, सासय जिणवर वंदीइ ओ ।" कितनी संगीतमय पदावली है । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैंपढइ गुणइ मति सवहई ओ मा० जे सुणइ समकित रास, समकित पामी ते क्रमई मा० पामइ शिवपुरि वास, सुणि । जां लगइ चंद सूरिज तपइ मा० जलनिहि जलपूरि,
तां जयउ समकित सुरतरु अ मा० संघ मणोरह पूरि, सुणि ।
इस कवि की भाषा में गेयता, प्रवाह और काव्योचित कोमलता है ।
संघविमल - आपकी रचना 'सुदर्शनश्रेष्ठिरास' की चर्चा चन्द्रप्रभसूरि और शुभशीलगणि के साथ हो चुकी है। विशेष विवरण के लिए
१. श्री अ० च० नाहटा - परम्परा पृ० ५९
२. श्री देसाई - जै० गु० क० - भाग ३, पृ० ४५७
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