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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
५२७ आगइ पालु प्रतिपर्नु अ, कविस्यू अकहारु।' इसमें सुदर्शन का चरित्र वर्णित है। रचना सामान्य कोटि की है, भाषा माधुर्य और काव्यसौष्ठवका अभाव है।
सोमचरित्र गणि-आपने तपागच्छीय आचार्य लक्ष्मीसागसूरि का चरित्र 'गुरुगणरत्नाकरकाव्य' नामक प्रसिद्ध प्रबन्ध में लिखा है जिसके द्वारा १६वीं शताब्दी की गुजरात से सम्बन्धित अनेक घटनाओं का सही वत्तान्त जाना जा सकता है। आप सोमदेवसूरि के प्रशिष्य एवं चरित्रहंस के शिष्य थे। यह रचना सं० १५४१ में संस्कृत में लिखी गई इसलिए यह मरुगुर्जर के इतिहास की परिधि में नहीं आती किन्तु यह इतिहास को जानने का एक प्रमुख स्रोत है अतः सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में इसका ऐतिहासिक महत्व रहेगा । इसीलिए इसका उल्लेख मात्र कर दिया गया है ।
सोमजय-आप तपागच्छीय सोमदेव के शिष्य थे। आपने 'जीरावला पार्श्वनाथ' (४४ कड़ी) की रचना की। इसका विषय स्वतः स्पष्ट है । भाषा के नमूने की दृष्टि से इसके आदि और अन्त का छंद दिया जा रहा है :आदि-'जीराउलि राउलि कयनिवास, वासव संसेविअ पवर पास,
पासप्पहु महतुं पूरी आस, आससेण वंश विहिअप्प यास ।' अन्त-सोमजय समुज्जल कित्तिपूर, भवियण जण अन्तरतिमिरसूर,
इय मत्तिहि जुत्तइ थुणिअ पास, जीराउलि जिणमुझपूरि आस ।' यह पाश्वनाथ की स्तुति में लिखी हुई भक्तिपरक रचना है। इसमें विनय एवं दैन्य का प्राधान्य है । भाषा में अपभ्रंश की पुट मिलती है।
सोमविमलसूरि-आप तपागच्छीय आचार्य हेमविमलसूरि के शिष्य श्री सौभाग्यहर्णसूरि के शिष्य थे। हेमविमलसूरि और सौभाग्यहर्षसरि के बीच आनन्दविमलसूरि हो गये हैं। आप ईडर निवासी ओसवाल मेघ की पत्नी माणेक दे की कुक्षिसे सं० १५४७ में पैदा हुए थे। मूलनाम बाधजी था। आपने सं० १५७० में हेमविमलसूरि से दीक्षा ली और सं० १५८२ में सुरि पट्टपर प्रतिष्ठित हुए किन्तु उसी समय इन्होंने गच्छभार अपने गुरुभाई सौभाग्यहर्ष को सौंप दिया जिन्होंने लघुपाशाल नामक एक नई शाखा चलाई । इसलिए तपागच्छ की पट्टावली में आनन्दविमलसूरि का नाम महीं आता। सोमविमलसूरि ने इन्हीं आनन्दविमलसूरि से विद्याभ्यास किया १. देसाई-जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास-पृ० ४९३, ७२९ और ७४५ २. देसाई-जै० गु० क०-भाग ३, पृ० ४६१
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