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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रथम पहरि रयणी जाणिजे, सुहउ पणि होइ, तस तणउ फल शुभ अशुभ, वरस छेहि तु जोइ । ' इसकी अन्तिम पंक्तियां देखिये
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'नानशील पंडित जयवंत, ते सहिगुरु प्रणमी अकंति, संवत पर साठा मांहि, सुहण फल सुणज्यो चउपइ । भeिs गुणसिह जे नरनारि तस घरि मंगल नवरच्यारि । सुन विचार वली सुलहि, मुनिवर सिंघकुल इणिपरि कही । "
सिहकुल- ऐसा प्रतीत होता है कि सिंहकुशल और सिंहकुल दो भिन्न कवि थे । आप बिंवदणिकगच्छीय देवगुप्तसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १५५० में 'मुनिपतिचरित्र' की रचना की । इस रचना में कवि ने अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार लिखी है
'बिंबदणीकगछ सोहि गणधार, श्री देवगुप्त सूरि जयकार, तास शिष्य सिंघकुल इम भणी, सांभलता नवनीध्य अंगणइ । '
इसकी भिन्न-भिन्न प्रतियों में पाठान्तर मिलता है और किसी प्रति में रचनाकाल सं० १५५० और किसी में सं० १४८५ भी मिलता है, यथा एक प्रति में यह पाठ है
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'संवत पनर पचासो जाणि वदि वैशाख मास मनि आणि ' और दूसरी में 'संवत चउद पच्चासीइ जाणी, वैशाखवदि मास मनि आणि 14 पाठ है ।
प्राचीन प्रति में रचनाकाल सं० १५५० दिया गया है अतः वही ठीक मालूम पड़ता है । इससे प्रकट होता है कि 'मुनिपतिराजर्षिचरित्र' के लेखक सिंहकुल 'नन्दबत्रीसी' के लेखक सिंहकुशल से भिन्न हैं । अतः यह भी स्पष्ट है कि सिंहकुशल का नाम सिंहकुल या संघकुल नहीं था । सिंहकुल या संघकुल 'मुनिपतिराजर्षिचरित्र' के लेखक हैं और सिंहकुशल से भिन्न व्यक्ति हैं।
१. श्री देसाई - जै० गु० क० - भाग १, पृ० १०३ और भाग ३ पृ० ५२९
वहीं,
२.
३.
वही, भाग ३ पृ० ५१९ वही, भाग १ पृ० ९०
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