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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
५१७ अपना परिचय देता हुआ कवि लिखता है
'मंत्रीसर सहसा सूतन, कविता सिद्धर नाम,
उतपति मोट अडालिजा, सोइतूठा श्रीराम ।' संवाद शैली की इस रचना में रावण-मंदोदरी के संवाद द्वारा पवित्र रामकथा कही गई है। मरु-गुर्जर में एक श्रेष्ठि द्वारा लिखित यह रामकथा अन्य रचनाओं से भिन्न कोटि की है क्योंकि यह जैन दृष्टिकोण के बजाय वैष्णव दृष्टि से लिखी गई है, दो पंक्तियाँ संदर्भ में उद्धृत हैं
सिंघासण वइठा श्रीराम, सकल लोकना सारई काम,
सो उपगार अमीरस थया, तिम सिद्धरनइ दीधी मया ।' सिंहकुशल-आप तपागच्छीय हेमविमलसूरि, ज्ञानशील के शिष्य थे। आपने सं० १५६० चैत्र शु० १३ गुरु को 'नन्दबत्रीसीचौपई' लिखी। यह रचना प्रकाशित है। इनकी दूसरी कृति 'स्वप्नविचारचौपइ' ४२ कड़ी सं० १५६० में ही लिखी गई। श्री मो० द० देसाई ने इनका नाम सिंहकुशल, सिंहकुल और संघकुल' भी बताया है। नन्दबत्रीसीचौपइ का प्रथम छन्द इस प्रकार है
'आगम वेद पुराणं, जाणता ने नरा हीयं मग, जं जं कवित कविअण तं सारद तुह पसाउ थाउ । पहिलु प्रणमु सरस्वती भगवती लील विलास,
श्री जिनवर शंकर नम मांगू बुद्धि प्रकाश ।' रचना काल-'संवत पनर साठ मझारि, चैत्र शुदि तेरस गुरुवार,
जे नर विदुर विशेषइ सुणइ, सिंहकुशल इणि परि इम भणइ।' इस पंक्ति में लेखक ने अपना नाम सिंघकुशल लिखा है।
पहले नंदबत्रीसी हेमविमलसूरि की रचना समझी जाती थी किन्तु वह उनके शिष्य ज्ञानशील के शिष्य सिंहकुशल की रचना प्रमाणित हुई है। श्री शामलभट्ट ने इस पर वार्ता लिखी है और नन्दबत्रीसी पर पर्याप्त प्रकाश डाला है।
स्वप्नविचारचौपइ के प्रारम्भ में सरस्वती की वंदना करता हुआ कवि कहता है
पहिलु मनि जोइ करी, गुरुमन गरुउ सार,
सरसति माइ पसाउलि, बोलसुं सुपन विचार । १. श्री देसाई-जै० गु० क.-भाग ३, पृ० ५२९ और भाग १, पृ० १०३ ...
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