________________
५१५
मरु-गुर्जर जैन साहित्य साधुकोति-आपकी रचना 'श्रीकीतिरत्नसूरिगीतम्' 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित है। इसका अन्तिम छन्द उदाहरणार्थ प्रस्तुत
'सुहगुरु थवणा पढइ गुणइ, वांचता आपण वयण सुणइ,
कुशल मंगल तसु पुण्य थुणइ, श्री साधुकीरति पाठक पभणइ ।'1 साधुमेरु-आप आगमगच्छीय हेमरत्नसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १५०१ (आषाढ़ी वर्ष पोष वदी ११) में धुधंका में जीवदया पर आधारित अपना प्रसिद्ध 'पुण्यसाररास' लिखा। इसमें जीवदया को सब पुण्यों का सार बताया गया है। रचनाकाल का उल्लेख कवि ने इस प्रकार किया है
'आषाढादि पनर अकोतरइ पोसवदि इग्यारिसि अंतरइ,
धंधूकपुरि कृपारस सत्र सोमवारि समर्पिउ चरित्र।" 'एकोतरइ' का अर्थ १५०१ ही है न कि १५७१ जैसा श्री देसाई ने किया था। कवि ने अपने नाम को पंडित, मिश्र, गणि आदि उपाधियों से अलंकृत किया है, यथा
'सुगुरु पसाइ नयर गोआलेर, धरणी पुण्यसार रिद्धिइकुबेर,
तासु गुण इम वर्णवइ अजस्र, साधुमेरु गणि पंडित मिश्र। इसमें जीवदया द्वारा ही सर्वसिद्धि की प्राप्ति संभव बताई गई है, अन्तिम छंद देखिये
'जीवदयानी हियउ धरउ बुद्धि, जीवदया पालउ मनशुद्धि
जीवदया लगइ निरन्तर वृद्धि, जीवदया पालिइ हुइ सर्वसिद्धि।' साधुरत्नसूरि-आप पुण्यरत्नसूरि के शिष्य थे। आपने 'कयवन्नारास' की रचना चौपाई छंद में की है । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार है
'पणमिय वीर जिनेसर देव, सरसति सामिणि समरी हेव, करजोडिनइं कहुं विसाल, कयवन्नानउ रास रसाल । दान बहु सुणयो संसारि, दानइं दुर्गति दूरइं वचारि,
दानइ सुख सम्पत्ति संयोग, दानई मनवंछित लहीइं भोग ।' १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह-'श्रीकीतिरत्नसूरिगीतम्' २. श्री देसाई-जे० गु० क०-भाग १, पृ. १३२ ३. वही, भाग ३, पृ० ४५३ ४. वही, भाग १, पृ. १३८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org