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मरु गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कवि कहता है कि जब तक तर्क बुद्धि है तभी तक विवाद है किन्तु जब भावना- प्रवण होकर आंख जिनेश्वर का सुन्दर रूप निहारने लगी और कान उनकी मधुर वाणी से कृतकृत्य होने लगे तो सारा विवाद समाप्त हो गया । इन्होंने दो-तीन संज्झाय भी लिखे हैं । उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए शालिभद्रसंज्झाय की कुछ पंक्तियां की जा रही हैं उद्धृत 'प्रथम गोवाल तणे भवेजी, दीधू मुनिवर दान, नगरी राजगृही अवतरिउ जी, रुपे अ मयण समान, धन धनो सुगति गउजी, सालभद्र अनुतर विमान, सहेजसुन्दर इम वीनवेजी, साची प्रवचन वाणि । "
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इन रचनाओं के आधार पर सहजसुन्दर एक समर्थ महाकवि सिद्ध होते हैं जिनकी भाषा सामर्थ्य अपने समकालीन अन्य कवियों की तुलना में विशेष महत्त्वपूर्ण है । इन्होंने प्रायः सभी रसों और नाना छंदों, देशी और
का प्रयोग करके अपनी विविध रचनाओं में जैन समाज में प्रचलित कथाओं के माध्यम से संयम एवं सच्चरित्रता का सन्देश दिया है । आप कोरे उपदेशक नहीं बल्कि एक सहृदय एवं उच्चकोटि के साहित्यकार थे । अतः आपके सन्देश विशेष प्रभावशाली बन पाये हैं ।
सर्व सुन्दरसूरि - आप मलधारीगच्छ के गुणसुन्दरसूरि के शिष्य थे । आपने सं० १५१० में 'हंसराजवत्सराजचरित्र' देवपाटण में निर्मित किया । इसमें पाँच प्रकरण हैं । आप पद्य के साथ उत्तम गद्य के भी समर्थ रचनाकार थे । आपने मेघराज कृत 'वीतरागस्तोत्र' पर अवचरि लिखी है ।" इसकी भाषा का निश्चय न होने से उद्धरण विवरण नहीं दिया गया ।
सोभागी
सारविजय - आपने नवपल्लवपार्श्वनाथगीत ( गा० ८ ) लिखा है जिसका प्रथम छन्द निम्नांकित है :
'मझमति उलट उपन्नउ, पूजिवा जिणवर पाय, मणुय जनम फल लेइसिउं, करसिउं निरमलकाय । इसकी आठवीं गाथा इस प्रकार है :
सारविजय गुरु उपदेसई श्री संघ पूजइ पास, पास पसाइ संघनई, दिनिदिनि अधिक प्रताप ।'
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१. श्री देसाई - जै० गु० कवि, भा० १, पृ० ५६३ २. श्री देसाई - जैन साहित्य नो इतिहास पृ० ५१४ ३. श्री देसाई – जे० गु० कवि, भाग ३, पृ० ४९३-४९४
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