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५१२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पुस्तक वीणा हाथिकमंडल, झबझब तेजकरी रविमंडल,
कुंडल कानि उलस्सीय । कइ कवित करू मनभावि, सासण देव तणइ परमावि,
सिद्धसूरि गुरुपय नमीय, सील सिरोमणि गुणसंयुक्ता, नमि अनोपम श्री रषिदत्ता,
जलधि सुता जगिते समीय । इसका रचनाकाल कवि ने 'संवत पनरई विहुत्तरइ' बताया है।
रत्नसारकुमारचौपइ में रत्नसार और रत्नमंजरी की कथा का वर्णन किया गया है । यह रचना सं० १५८२ में की गई, यथा
'संवत पन्नर व्यासी संवछरिओ रचीउ मई रासरे।' आत्मराजरास (सं० १५८२) की प्रारम्भिक पंक्तियां देखिये :
'सिरि सरसती सरसति, आपु वचन विलास ।
श्री आतमराज पणिसु चरित्र उल्हास ।' परदेशीराजारास में कवि ने गुरु परम्परा का उल्लेख करके बताया है कि वे सिद्धसूरि. धनसूरि, रतनसमुद्र उपाध्याय के शिष्य थे । इसमें परदेशी राजा के वृत्तान्त के माध्यम से कवि ने धर्म का माहात्म्य समझाया है।
शुकराजसाहेलीकथा रास-इसमें कथा के माध्यम से पुण्य का प्रभाव बताया गया है, यथा--
पुण्ये राजहरंगघण, पुण्ये टले वियोग,
पुण्ये रोगन ऊपजे, पुण्ये सुललित भोग । इसमें कवि सरस्वती से याचना करता है :
'हरष घणो, गुण बोलतां, सुणतां सिद्धि बुद्धि होय,
सुडा ने साहेलीयां तणी, कथा सुणो सहुकोय ।' तेतलीमंत्रीरास (सं० १५९५) कवि के रचनाकाल के अन्तिम दिनों की रचना है। इसे पहले किसी कवियण की रचना समझा जाता था किन्तु इसके अन्त में कवि ने अपना नाम और रचनाकाल दिया है, यथा
'संवत पनर पंचाणुइ, आसो मासि धरी मण हीइ,
शुदि आठमि नि मंगलवार, गण बोला रषिना अवधार। १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क०, भाग ३, पृ० ५५८-५५९ २. वही, भाग १ पृ० १२७
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