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मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सर्वाङ्गसुन्दर - बड़तपगच्छीय जयशेखरसूरि की परम्परा में जयसुन्दर उपाध्याय के आप शिष्य थे । आपने सं० १५४८ ( मागसिर शुदी १०, मानुष्यपुरी) में 'सारसिखामणरास' लिखा । इस रास में रात्रि भोजन निषेध, जीवहिंसा त्याग, अभक्ष्य त्याग इत्यादि हितप्रद बातों की शिक्षा दी गई है । इसकी भाषा मरुगुर्जर है किन्तु हिन्दी का अनुपात अधिक है । इसमें प्रायः ढाई सौ पद्य हैं । इस कृति का रचनाकाल कवि ने इन पंक्तियों में बताया है :--
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'पनरसइ अडतालइ संवत्सरि, मागसिर सुदि दसमी गुरु मानुष्यपुरी, नित निय मंगल जय करुओ । '
इसके अन्त में लिखा है :
'अ हित शिष्या नितु हइइ धरस्यइ,
दुखसागर ते निश्चइ तरस्यई, शिवसुख अविचल पामस्यइ ।'
इसमें कवि ने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए बडतपगच्छीय जयशेखरसूरि, जिन सुन्दरसूरि, जिनरत्नसूरि और जयसुन्दर उपाध्याय का सादर स्मरण किया है । कवि की भाषा सरल और रचना उपदेश-परक है । कवि ने अपना नाम सर्वांगसुन्दर के स्थान पर संवेगसुन्दरउवझाय लिखा है, यथा
'तास सीस गुरु लहीय पसाय, श्री संवेगसुन्दरउवझाय, रचिउ रास ओ रुअडो ओ ।" अतः ‘सारसिखामणरास' के लेखक सर्वांगसुन्दर या संवेगसुन्दर एक ही व्यक्ति हैं ।
सहजसुन्दर - आप उपकेशगच्छ के उपाध्याय रत्नसमुद्र के शिष्य थे । आप इस शताब्दी के उत्तम कवियों में गिने जाते हैं । आपने सं० १५७० से लेकर सं० १५९५ तक रचनायें कीं । इस अवधि में आपने बीसों सुन्दर रचनायें मरुगुर्जर में कीं, जिनमें से कुछ प्रमुख रचनाओं का नाम दिया जा रहा है - ( १ ) इलातीपुत्रसज्झाय, पद्य ३१ सं० १५७०, (२) गुणरत्नाकर छंद सं० १५७२, (३) ऋषिदत्तारास, (४) रत्नसारकुमारचौपइ, सं० १५८२, (५) आत्मरागरास सं० १५८२, (६) परदेशी राजारास, पद्य २१९ (७) शुकराजसाहेलीचरित्र, पद्य १६७, (८) जंबू अन्तरंगरास पद्य
१. श्री देसाई - जै० गु० क० - भाग ३ पृ० ६७
२. वही
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