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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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ऋषभस्तव, कल्याणकस्तव, शंखेश्वरस्तव, नेमिस्तव आदि कई स्तव भी आपने भावपूर्ण और रमणीय शैली में लिखा है । इसमें से महावीर स्तव की कुछ पंक्तियां उदाहरणार्थ प्रस्तुत की जा रही हैं :
'श्री त्रिसलानंदन गुणभयेउ श्री वर्द्धमान जिनराय, इम वीर जिणवर तेजि दिणयर भविय मणहर संथुउ ।
समरचंदिइ मन आणंदिइ चउद छंदिइ संजुउ।'' इसमें कवि अपना नाम समरचंद्र लिखा है, इससे मालूम होता है कि कवि समरचन्द्र और समरसिंघ दोनों नाम लिखता था और ये दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं। ___ आपकी रचनायें छोटी-बड़ी मिलाकर संख्या में पर्याप्त हैं और उनमें कहीं-कहीं उच्चकोटि की भावव्यन्जना भी मिलती है। इनकी मरु-गुर्जर भाषा काव्यरचना के लिए सक्षम है।
समरचन्द्र शिष्य-आपने 'श्रेणिकरास' लिखा। यह शिष्य पार्श्वचन्द्र सरि स्तुति' लिखने वाले समरचन्द्र का न होकर किसी अन्य समरचन्द्र नामक विद्वान् का शिष्य था। ये समरचन्द्र लुका ऋषि रूपजी की परम्परा में रत्नागर के शिष्य थे। इस 'श्रेणिकरास' में कवि ने स्पष्ट गुरु परम्परा दी है और बताया है कि ऋषिरुपजी, जीवजी, कुंवरजी, मल्ल, रत्नागर के शिष्य समरचन्द्र का कवि शिष्य है, यथा
सासनि मंडन दुरित खंडन समरचन्द अणगार।
ते सद्गुरु सुपसाइलि मिइं रचीउ रे खंड बीजु सारकि । श्रेणिकरास के दूसरे खंड का प्रारम्भ इन दोहों से हुआ है
'श्री जिननायक भावसु, वंदु जग आधार । वर्धमान स्वामिजयु सेवक जनहितकार ।
समरचंद ऋषि निति नमु, संयम सुखदातार ।
तास प्रसादि वर्णवू सरस कथा सुविचार । इस प्रकार श्रेणिकरास का लेखक लोंकागच्छीय ऋषि समरचन्द्र का शिष्य है। । १. श्री देसाई-जै० गु० क०, भाग ३, पृ० ५९७ २. वही
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