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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
'भूतिरास' को १७वीं शती में परिगणित किया है । साथ ही जै० गु० क० भाग ३ में इस कवि को निश्चित रूप से १६वीं शताब्दी का बताया है । हो सकता है १६ वी शताब्दी शुभवर्द्धन शिष्य जिन्होंने शान्तिनाथ स्तवन और 'गजसुकुमालरास' लिखा, वे सुधर्मरुचि से भिन्न हों । अतः सुधर्म रुचि और उनकी रचना आषाढ़भूति का विवरण १७वीं शताब्दी में ही देना उचित होगा ।
समरचन्द्र ( समर सिंह ) - आप पार्श्वचन्द्रगच्छ के संस्थापक आचार्य पार्श्वचन्द्र के शिष्य थे । आप सिद्धपुर पाटण के निवासी श्रीमालवंशीय श्री भीमाशाह की पत्नी वालादे की कुक्षि से सं० १५६० में पैदा हुए थे 1 आपकी दीक्षा सं० १५७५ में हुई और सं० १५९९ में उपाध्याय पद मिला । आप सं० १६०० में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए तथा सं० १६२६ में खंभात में आपका स्वर्गवास हुआ ।
आपने गुरु पार्श्वचन्द्र की स्तुति में 'पार्श्वचन्द्रसूरिस्तुति संज्झाय' लिखा । आपने सं० १६०७ में 'महावीरस्तवन' खंभात में लिखा । इसके अलावा प्रत्याख्यान चतुःसप्ततिका, पंचविंशतिक्रियासंज्झाय, आवश्यकअक्षरप्रमाण संज्झाय, शत्रुञ्जय मंडनआदिनाथ स्तवन (सं० १६०८), शान्ति-जिन स्तवन, चतुर्विंशतिजिननमस्कार, सं० १५८८ आदि कई स्फुट रचनायें हैं ।
शत्रुञ्जयमंडन आदिनाथ स्त० में कवि ने अपना नाम समरसिंघ लिखा है, यथा :
'श्री पासचंद सूरिंद सीसइ, समरसिंघ संवछरइ, माघ मासिई शुकिल अठमि सोलसइठउतरइ ।”
'ब्रह्मचारी' नामक कृति में ब्रह्मचर्य का गुण गाया गया है । ९४ कड़ी की इस रचना का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है :
गोयम गणहर पाय प्रणमी करी, ब्रह्मव्रत घुवसि उं हरष हीइधरी, सुधू पाली भवसागर तरी, प्रीणी पामंइ पामिसि शिवपुरी ।'
'उपदेशसाररत्नकोश - ११ बोल संज्झाय' की अन्तिम पंक्तियां देखिये
'ज्ञेय वस्तु स्वरूप जाणी धर्म्मस्यु मन राखिये, सूरींद श्री पासचंद सीसिइ समरसिंघ इम भाषिये ।'
१. श्री देसाई - जै० गु० क० भाग १ पु १५० -१५१
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