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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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भट्टारक शुभचन्द्र - आप भ० विजयकीर्ति के शिष्य थे। इनका जन्म सं० १५३० और १ ४० के मध्य हुआ होगा । ये सं० १५७३ में भ० विजयकीर्ति के पट्टधर भट्टारक बने और बलात्कार गण की इडर गद्दी पर सं० १६१३ तक सुशोभित रहे । इस अवधि में इन्होंने राजस्थान, पंजाब, गुजरात और उत्तर प्रदेशमें जैनधर्म और संस्कृति का खूब प्रचार किया । इन्होंने संस्कृत, प्राकृत और मरुगुर्जर में अनेक ग्रन्थ स्वयं लिखे और अपने शिष्यों द्वारा प्रतिलिपियाँ कराकर उन्हें भाण्डारों से सुरक्षित रखवाया । आप षट्भाषा कवि चक्रवर्ती कहे जाते थे । आपके शिष्यों में सकलभूषण, तेजपाल, क्षेमचंद्र, सुमतिकीर्ति आदि उल्लेखनीय हैं । डॉ० कासलीवाल ने इनकी संस्कृत में लिखी २४ कृतियों की सूचना दी है जिनमें चन्द्रप्रभचरित्र, पाण्डवपुराण, करकण्डुचरित्र, कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, चन्दनाचरित्र, जीवन्धरचरित्र, श्रेणिक चरित्र के अलावा कई पूजा और कथा आदि सम्मिलित हैं । इनकी हिन्दी या मरुगुर्जर की निम्नांकित रचनायें प्राप्त हैं: - ( १ ) महावीरछंद (२) विजयकीर्तिछंद, (३) गुरुछंद, (४) नेमिनाथछंद, (५) तत्वसारगृहा, (६) दानछंद, (७) अष्टाह्निका गीत, (८) क्षेत्रपालगीत और अनेक स्फुट पद तथा गीत आदि ।
महावीर छंद -- इसमें महावीर स्वामी का स्तवन है । इसमें कुल २७ पद्य है । इसकी भाषा संस्कृत गर्भित है । इसका प्रथम छंद देखिये :'प्रणमीय वीर विवह जण रे जण, मदमइ मान महाभय भंजण, गुणगण वर्णन करीय वखाणु, यतो जण योगीय जोवन जाण । हे हे देश विदेहह, कुण्डलपुर वर पुहवि सुदेहह । सिद्धि वृद्धि वर्द्धक सिद्धारक, नरवर पूजित नरपति सारथ । " विजय कीर्तिछंद - ऐतिहासिक कृति है । इस रूपक काव्य में कवि ने अपने गुरु की प्रशंसा २९ पद्यों में की है । इसकी भाषा एवं वर्णन शैली सुन्दर है । इसमें प्रतिनायक कामदेव, मत्सर, मद, माया आदि की सेना लेकर विजयकीर्ति पर आक्रमण करता है किन्तु उनके शम, दम, नियम आदि सैनिकों ने उन्हें खदेड़ दिया । कामदेव पराजित हुआ । कवि लिखता है : -- 'भागो रे मयणा जाई अनंग वेगि रे थाई । पिसिर मनर मांहि मु ंक रे ठाम ।
रीति र पारि त्यागि मुनि कहने वर मांगी, दुखिर काटि र जागी जंपइ नाम ।
३. डा० क० च० कासलीवाल - राजस्थान के जैन संत पृ० ९३ - १०५
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