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मत
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आपकी दूसरी रचना 'शत्रुञ्जयभास' (गाथा ११) सं० ११३५ के आसपास की रची है। यह जैनयुग पु० ५ पृ० ४७३ से ४७७ पर प्रकाशित है। इसका प्रथम एवं अन्तिम छन्द आगे उद्धृत किया जा रहा है :प्रथम छन्द 'करि कवि जणणि पसाउ, हमई सरसति रहइ भूवयणलां ।
गायस तीरथराउ हमई सेत्रुज भवसायर तणउ ।' अन्त 'दूरि थिकिउ नहीं दूरी, हमई जइ किम जइ किम ऊजम ऊपजइ ओ,
इम बोल इ शांतिसूरि, हमइं से त्रुज सेव॒जहइ घरि आंगणइ ।'
इसकी हस्तलिखित प्रति सं० १५३५ की प्राप्त है अतः यह रचना भी। १५१५ या १५२० के आसपास की हो सकती है। इसलिए दोनों के कर्ता एक ही शांतिसूरि हो सकते हैं । १६वीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में किसी अन्य शांतिसूरि नामक मरुगुर्जर के लेखक का अबतक पता भी नहीं चला है अतः इन दोनों के रचनाकार एक ही शान्तिसूरि होंगे। इन दोनों रचनाओं की भाषा शैली अवश्य भिन्न है। प्रथम में मिली-जुली भाषा शैली का प्रयोग किया गया है जबकि इस लघु कृति में शत्रुजय तीर्थ का माहात्म्य सामान्य मरुगुर्जर में प्रस्तुत किया गया है। सागरदत्त रास की भाषा का मूलाधर मरुगुर्जर ही है। काव्यत्व की दृष्टि से सागरदत्त रास एक सरस काव्य कृति है।
शिवसुन्दर-आपने सं० १५९५ में 'लुकटमत निर्लोढन रास' गाथा ३८ लिखी जो स्पष्ट ही खंडन-मंडन की दृष्टि से लिखी गई है अतः इससे काव्य कला या साहित्य का कोई सम्बन्ध नहीं है। ये रचनायें बौद्धिक तर्क पर आधारित होने के कारण गद्य के लिए अनुकल होती हैं, शिवसुन्दर मूलतः गद्यकार हैं। आप खरतरगच्छीय लेखक थे और जिनमाणिक सूरि के भक्त थे। इसकी भाषाशैली का नमूना प्रस्तुत हैआदि शासन नायक प्रभु नमू, त्रिशला राणी नंदनवीर कि
रास करउं सोहामणउ, अलवइ पामउं भवजल तीरकि ।।' अन्त में रचनाकाल भी है।
'संवत पनर सताणवइ, जयवंतउ जिनमाणिक सूरि कि,
खरतरगच्छनउ राजियउ, श्री शिवसुन्दर आणंदपूर कि ।' १. श्री देसाई -जै० गु० क० भाग ३, ५० ४९३ २. वही, पृ० ६१८ और भाग ३ खंड २ पृ० १५००
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