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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
३५ किन्तु अपभ्रश में विशाल जैन साहित्य अवश्य उपलब्ध हैं जिसे श्रावकों के आग्रह पर जैनाचार्यों ने साधारण जनता में धर्मप्रचारार्थ जनप्रचलित अपभ्रश में लिखा है। इन रचनाओं में प्रायः किसी शलाकापुरुष (तीर्थंकर या महापुरुष) का चरित्र चित्रित किया गया है अथवा किसी व्रत-नियम का माहात्म्य बताया गया है । जैन लेखकों ने अपने मत का प्रतिपादन अवश्य किया है किन्तु इसी प्रकार के अन्य साम्प्रदायिक साहित्य से यह साहित्य इस अर्थ में पूर्णतया भिन्न है क्योंकि मत प्रतिपादन करते हुए कट्टरता के आवेश में जैन लेखकों ने सहिष्णुता और उदारता को तिलांजलि नहीं दी है।
इनकी साहित्य रचना का आधार कर्म-विपाक का सिद्धान्त है, इसके लिए कभी-कभी ऐतिहासिक घटनाओं और महापुरुषों के जीवन चरित्र में कुछ तोड़-मरोड़ अवश्य किया गया है। पुनर्जन्मवाद के आधार पर कथा का निर्माण जैन सिद्धान्तों के अनुसार किया जाता है। इस साहित्य में महापुराण, चरित काव्य, रूपक काव्य, कथाग्रंथ, सन्धिकाव्य, रासो और स्तोत्र-स्तवन आदि विविध रूप पाये जाते हैं। त्रिषष्टिशलाका पुरुषों का वर्णन अथवा रामायण, महाभारत की कथाओं तथा उनके पात्रों का धर्मानुकल चित्रण ही किया गया है। प्रायः चरित काव्यों में आश्चर्य तत्त्व, चमत्कार, अतिमानवीय पात्रों जैसे विद्याधर, गन्धर्व, यक्ष और देव आदि का वर्णन मिलता है। तंत्र-मंत्र, स्वप्न-शकुन आदि को भी इनमें पर्याप्त स्थान दिया गया है।
जैन चरित काव्य प्रायः पद्यबद्ध घटना-प्रधान उपन्यासों की तरह हैं जिनमें चमत्कार द्वारा धर्मोपदेश का विधान किया गया है। विद्याधरों आदि पात्रों को इच्छारूपधारी और चमत्कारी विद्याओं में पारंगत दिखाया गया है । वे प्रायः आकाश गमन करने, अदृश्य हो जाने और रूप बदलने में समर्थ होते हैं ।
जैनियों ने भी ब्राह्मणों की तरह पुराण लिखा है जिनमें पद्मपुराण और हरिवंशपुराण अधिक प्रसिद्ध हैं। पद्मपुराण में रामायण की कथा को १. देखिये, श्रीकालीपदोमित्रकृत 'Magic and Miracle in Jain
Antiquary. २. रेवरेण्ड फादर कामिल बुल्के-रामकथा पृ० ६०-७१
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