________________
५०२
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास वर्णन सरस हैं, भाव अनूठे हैं, भाषा समर्थ है अतः रचना उच्चकोटि की है । अन्त में कवि अपना परिचय इस प्रकार देता है :
'श्री मूलसंघि महिमानिलो, जतीतिलो श्री विद्यानंद । सूरि श्री मल्लिभूषण जयो, जयो सूरी लक्ष्मीचंद । जयो सूरि श्री वीरचन्द गुणिंद, रच्यो जिणि फाग ।
गाँता साभलता ए मनोहर, सुखकर श्री वीतराग ।'' कवि ने फाग में रचनाकाल नहीं दिया है किन्तु डा० कासलीबाल का मत है कि यह रचना सं० १६०० में पूर्व की ही है। ___ जंबूस्वामी बेलि-जंबूस्वामी के जीवन पर संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में अनेक रचनायें की गई जिनके आधार पर कई कृतियाँ मरुगुर्जर में भी लिखी गई। प्रस्तुत बेलि की भाषा आदर्श मरुगुर्जर है जिस पर यत्र-तत्र डिंगल भाषा शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है। यह रचना काव्य की अपेक्षा भाषा की दृष्टि से अधिक पठनीय है। इसमें दूहा, त्रोटक एवं अन्य कई छंदों का प्रयोग किया गया है। कवि ने इसके भी अन्त में मूलसंघ की गुरुपरम्परा का उल्लेख किया है। इसका रचनाकाल अज्ञात है। भाषा के नमूने के रूप में कुछ पंक्तियां उद्धृत की जा रही हैं :
'तेह वारे उदयो गति, लक्ष्मीचन्द्र जेण आण । श्री मल्लिभूषण महिमा घणो, नमे ग्यासुदीन सुलतान । तेह गुरुचरण कमल नमी अने वेल्लि रची छे रसाल,
श्रीवीरचन्द्रसूरिवर कहे, गांता पुण्य अपार।' जिनआंतरा में उस अन्तर का वर्णन है जो २४ तीर्थंकरों में एक के बाद दूसरे के बीच होता है। संबोधसत्ताणुभावना एक उपदेशात्मक कृति हैं। पूरी रचना दोहों में हैं। दोहे शिक्षाप्रद किन्तु सरल शैली में हैं। एक दोहा देखिये
नीचनी संगति परिहरो, धारो उत्तम आचार,
दुल्लभि भव मानस तणो, जीवतू आलिम हार ।५०। सीमंधर स्वामीगीत-इस लघु गीत में सीमन्धर का स्तवन है । १. डा० क० च० कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत पृ० २६६-२६७ २. वही पृ० ११०-१२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org